Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 5
________________ ॥ ॐ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥ जै न सा हि त्य सं शोध क 'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्साणाए उवठ्ठिए मेहावी मारं तरइ ।' 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' दिलै, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्य परिकहिज्जइ ।' -निम्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र । खंड २ ] हिंदी लेख विभाग. [ अंक १ यो ग दर्शन +00+ ( लेखकः-पं. सुखलालजी न्यायाचार्य) प्रत्येक मनुष्य व्याक्त अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अत एव राष्ट तो मानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवर में पटता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? । बहुत विचार कर देखनेसे मालूम पडता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका ( स्थिरताका) अभाव है, क्यों कि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जानेके कारण शक्तियां इधर उधर टकरा कर आदमीको बरबाद कर देती है । इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुंचानके लिये अनिवार्यरूपसे सभीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत व्याख्यानमालामें योगका विषय रक्खा गया है। • भूजरात पुरातत्त्व मंदिरकी ओरसे होनेवाली आर्यविद्याव्याख्यानमालामें यह व्याख्यान पढा गया था ।

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