Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha

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Page 81
________________ (३) अनाधारना आधार! आ अवसपीणिमां आदिप्रधर्मवर्त क!! तारा विना संसारमा आश्रय करी गहान आशा राखता योग्य अमारे कांइपण अन्य वा नयो. दीनो द्वारक! शरणांगतनिभावक! देवादिदेव!! जेनी साथे हमेश अमे रमता, जैनी अमे स्तुती करता, जेनी सा थे प्रिितथी वातचित करता. तेज प्राणीओने अमे अमारी आंख आगळ भस्मीभत थइ आ संसार नी घटमाळामा रटन करता उप्पनना मेळे पडेला दु खथी डतको खाता नोयाछे; परंतु डाचु विकासी आगळ उभेला कृतांतनो भय कोरे करी प्रमादवशथी अद्यापि पण पाप कर्म करवामां जेवाने तेवाज छोए. वषभवाहन! ऋषभदेव!! शरण आवेला शेतकपर दयार ष्टि की बोधीबीज दइ संसार पार उतरवाने आगो नदि द!! तथास्तु !!

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