Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha
View full book text
________________
॥सुमतिनाथ ॥ त्वमेवशरणतात्रा! त्वंतत्वत्वंचजीवति ।
वंगतिस्त्वमतिस्स्वामी श्रीसर्वज्ञ ! खमेवमे ॥ हे! विकटदुर्जयमन्मथशंकर!! तुंज अभारु शरणछे; तुंज अमारो तारक छे; तंज तत्वछे; तुज जीवित छे; तुज अमारी गति छे; तंज अमराि मति छे; हे सर्वत! तुंज अमारो स्वामीछे टुंकामां अमारु सर्वस्व तुज छे.
स्वकी यवंशांबरभास्कर ! विशालगंगा जलशुभ्रकोर्ते ! आनंदवलीतीतबारिधार ! दुःख त्रास सभार गौवभु जग!! तारा अगणित गुणनी गणवी करतां गारवाणग णो पण थाक्या तो अम सरखा मनुष्यनुं तो गजें? सर्वज्ञ! कविओ कहछे के विधाता दिवसे आकाश रुपपा टी साफ करी राखी, रात्रिए निरांते चन्द्ररुप खडीआ

Page Navigation
1 ... 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99