Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha
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॥ अभिनंदन ॥ भविकाम्बुजभासनभानो ! सर्व योगश्विर चिंत्य! स्वती यदि कर्ता! सिद्धार्थीनंदन! आनंदकंद! पुरुषोत्तम!! अमे दीनजनो आप आश्रये आपी आ भयंकर, दुर्मेद्य कर्भ रुप काराग्रहगांधी मुक्त करावया एक चिने प्रार्थना करीए छीए. गुणपारावार! शीवसूत्रधार!निराधाराधार! करूपासागर! बुदिनिधान!! मोहावरणधी आवत्त थइ क रेलां क्रोडोगमे पापोनो खरादि लथी पस्तावो कराववा अने फरी फरी तेना तेज कर्म करवामां उद्यत थता अटकावरावया, ज्ञानदान देवा, परमश्रद्धा पूर्वक विनं ति करीए छोए. प्रभूताविभव! स्वयंप्रभ!भवद्भावी भूतभा वावभासकृत! तीर्थकत!! क्षणेक्षणे पलटाती-घडीक गां पापकर्ममां तो घडीकमां पुन्यप्रवृत्तिमां--प्रवत्त थती

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