Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha

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Page 92
________________ के जेनी अंदर अंक रुप कचाछे, ते बइ किरणरूप ले खणवडे, तारारुप आंक मांडी कइक काळथी आ जि नेद्र भगवानना गुणानी गणत्री कादेछे पण हज पार भाव्यो नथी."परमेष्टी! तारा गुण अगणित ते अगणि तनछे. जगत्रयारामकल्पवृक्ष! शिवसखदातार! विश्वाधार! जित मदनविकार! करूणागार! त्रिकालनित!! अ विचार रुप पापी पिशाच अमारा सबळ आत्माने निबल तत्य बनावी अधमगतिए पहोंचाडेछे. जरातरा सु ख के यशनी प्राप्ति थइ के अमारा आणंद ने अंहका रनी तो हदन रहेती नथी. तारा पवित्र नियमने वि सारी अमे अविचारी जीवो क्यांकन क्यांक करीए छी१. खरा धार्मिक कर्मो मकी कीर्ति यशने माटे कहेवा तां धार्मिक को करी पाप पुंज एकत्र करीए छोए. का रुण्यसिंधो! त्रिलोकबंधो! मद मत्सरमक्त! तोषितभक्त!

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