Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha
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॥ आदिनाथ ॥ मदनकदन! लोकोत्तरलक्ष्मीसदन! भवभयभंजन! नन मनरंजन! दूरित निकंदन! मरूदेवानंदन! नागनरा मरेद्रपजाई! आदिअरिहंत!! भुवनभवनमा मोह मदिरा थी ऊन्मत्त बनी, पाप कर्ममा प्रवृत्त यवायी पस्तावानी पाळे अथ डाता, धर्मधनहीन, अमे आप आश्रये आ नेला छइए, शान्तमुद्राभिराम! भवदवदग्धजनविश्रामा राम! रूपाधाम! चतुर्मुख! नाभिभू!! तारा सुधासम र पदेशी अमन, आ मोहांवकारेव्याप्त, बानावणियादि कर्मप्रतिरूपवलीयुक्त, पंचाश्रवरुपवर्षादथी वर्षित, ग पतरीना मार्गवाळी, भवअटवी मांयी ऊगार. जटाधा री! वषांकित! शकर!! आत्तराद्रध्यानयी ऊत्पन यता माठापरिणामरूप भयंकर भासूर अमिए, पंडिना में

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