Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha

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Page 86
________________ ॥ संभवनाथ ।। अज्ञानमिथ्यात्वत मिस्रदीपवैलोक्य चूडामणि! स द्धर्मबोधदाता! भवभयभीतभ्राता! उदारचरित्रनिधि! ज गत्प्रभो!! आ भवरुप भयंकर अटवी के ज्या, लाभरूण दावानल लाभप जलगी होलातो नथी एटलुज नही पण उलटो बधारे वधारे प्रदीप्त थतो जायछे, ज्यां इं दिओनी तृष्णा मगतृष्णा तुल्यछे, त्या अमे शी रोते स्वस्थपणे रही शाय? एक चिता मटी तो वळी बी. जी चिता खडी नछे; मन वचन कायाना व्यापारे करी विकार लागुन छ; अत्यंत क्रोधना योगे करी रजोगुणनी प्राप्तीतो हा जरज; आम विपत्तिरुप खाइना पाणीनी भरी मां पगलं पगले पडनारा अप सरग्वा प्राणाओना दु:खनी के इवार पण अन्त आवतो नथी. कर्माष्टदा,

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