Book Title: Jain Prarthanamala Part 01
Author(s): Vinayvijay
Publisher: Jain Dharm Pravartak Sabha
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(२) लिस विषयमा लीन यएला अम सरखा जीवान विचार रुप बीज बाळी, समतारुप अंकुर तो अटकाव्यो छे, पुरुषोत्ता ! दानांतराय, लात राय, विर्यान्त राय, भोगान्त राय, उपभोगान्त राग, हास्य रात, अरात, भीति, जुगुप्सा, शोक, काम, मिपाव मज्ञान, निद्रा, अविरति, राग अने द्वेष ए अढारदोष मुक्त! भक्तवत्सल ! भगवन!! तुं तारा वचन रूप सु. धावाष्ट सींची ते अमि शांत करी विचार रुप नोने सजीवन करी, समतारुप अंकुर प्रगट कर सुवर्णकांत! सुनदाकान्त ! विनीतापति !! आयुवा यथी चढी आवेला मोजा माफक चंचळ छे; सम्पत्तिने विपत्ति लागेलाछे; समस्त शब्द, रुप, रस, गंध अने स्पर्श विषयो संध्यान सम मनोहर तेमज क्षणिकछे: स्व जन स्त्री आदि समाग मयी उत्पन्न यतुं सुख इंद्रजाळ सरखंछ, हुंकामा है!

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