Book Title: Jain Mandiro ki Prachinta aur Mathura ka Kankali Tila
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 12
________________ ( ८ ) में हुमा था जिसने शत्रुञ्जय का संघ निकाल कर श्री संघ को सुवर्ण की लेग दी थी । (८) चीनी यात्री फाहियान (वि० सं० ४५६ ) सुंगयून ( वि० सं० ५१८ ) हुएनसंग ( वि० सं० ६८६ ) इत्सिंग ( वि० सं० ७२८ ) में भारत में आकर भ्रमण किया था । उन्होंने अपने यात्रा विवरण में मथुरा में जैन व बौद्धों के बहुत से मंदिर होना लिखा है । इन उपयुक्त प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि एक समय मथुरा जैन मन्दिरों से खूब त्रिभूषित थी । पर दुःख इस बात का है कि जो मथुरा पहिले जैनों का केन्द्र स्थान थी वही आज कई वर्षों से जैनों से निर्वासिता दृष्टिगोचर होती है । और इसका खास कारण जानने के लिए आज हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है जो हम इस बात का निर्णय कर सकें । परन्तु अनुमान से पाया जाता है कि किन्हीं विधर्मियों का जैनों पर आक्रमण हुआ होगा और उस से जैन मंथुरा को छोड़ अन्य स्थानों पर जा बसे होंगे ? हाँ, विक्रम की म्यारहवीं शताब्दी तक तो जैन श्वेताम्बर मथुरा में अच्छी संख्या में थे, यह बात वहाँ से मिले हुए शिलालेखों से पाई जाती है और मथुरा के शिलालेखों से यह भी पता चलता है कि वि० ग्यारहवीं शताब्दी तक वहाँ अनेकों जैन मंदिर मूर्त्तिएँ भी प्रतिष्ठित थीं जो इस सत्य तक भी यत्र तत्र भग्नावस्था में वहाँ विद्यमान हैं । परन्तु बाद में कब और किस कारण से जैनों ने मधुरा का परित्याग किया इसका कोई पुष्ट प्रमाण अब नहीं मिलता है । पर हम ऊपर लिख आए हैं कि किसी धर्मान्ध विदेशी ने जैनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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