Book Title: Jain Mandiro ki Prachinta aur Mathura ka Kankali Tila
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 31
________________ ( २३ ) "आक्रोशाद्देव चैत्याना मुत्तमं दण्ड महति" इससे पाया जाता है कि उस समय धर्म कार्य में मन्दिर मूर्तिएं मुख्य समझी जाती थीं। १८-प्रभास पाटण ( काठियावाड़ ) में एक सोमपुरा को भूगर्भ से ताम्र पत्र मिला है। उसमें लिखा है कि "नेबुस देने झर" नाम राजा ने एक भव्य मन्दिर बना कर गिरनार मण्डन नेमिनाथ को अर्पण किया है" इत्यादि । इस ताम्रपत्र ने तो इतिहास क्षेत्र पर इतना प्रकाश डाला है कि बावीसवें तीर्थङ्कर को आज-कल के विद्वानों ने एक ऐतिहासिक व्यक्ति करार दे दिया है। क्योंकि "नेबुस देने मर" का समय ई. स. पूर्व छट्टी सातवीं शताब्दी का बतलाया जाता है। उस समय पूर्व जैनों में, नेमिनाथ को तीर्थङ्कर मानते थे और गिरनार पर्वत पर उनका मन्दिर मौजूद था । मूर्तिपूजा के विषय में इनसे बढ़ कर और क्या प्रमाण हो सकते हैं । हमारे भाइयों को अब केवल आग्रह को छोड़ सत्य का उपासक बनना चाहिये ।। १९-उपकेशपुर ( ओसियां) और कोरण्टपुर की प्रतिष्ठा वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के कर कमलों से हुई थी। चे दोनों मन्दिर आज भी विद्यमान हैं। २०-भगवान महावीर अपनी छदमस्थ दीक्षा के समय मुण्डस्थल में पधारे । आपके दर्शनार्थ राजा नन्दीवर्धन आया, और इस दर्शन की स्मृति के लिए वहां भगवान महावीर का मन्दिर बनाया था । कालक्रमशः वह मन्दिर उसी रूप में न रहा पर उसके खण्डहर तथा शिलालेख आज भी अपनी प्राचीनता को ठीक गवाही दे रहे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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