Book Title: Jain Mandiro ki Prachinta aur Mathura ka Kankali Tila
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 19
________________ ( १५ ) सकती हैं । भारत की प्राचीन वर्णमालाएँ तथा प्राकृतिक भाषायें और उनका व्यकरण एवं शिल्पकला तथा राजकीय और सामाजिक व्यवस्था इत्यादि का बहुत कुछ पता इस प्राप्त प्राचीन पुरातत्त्व की सामग्री से मिल सकता है । - ७ - जो शिलालेख वहाँ मिले हैं वे ईसा के डेढ़ सौ वर्ष पूर्व से १०५० वर्ष तक अर्थात् १२०० वर्ष के होने से १२०० वर्ष तक का हाल उन शिलालेखों से विदित हो सकता है । उन शिलालेखों में कई ऐसे भी शिलालेख हैं कि जिनमें सन या संवत् नहीं है । वे ईसा से पचास वर्ष से भी अधिक पुणे हैं । पत्थर पर जो काम है वह बहुतबारीकी का है । उस पर जो - मूत्तियां और बेलबूटे हैं वे सब प्रायः इस देश की शिल्पकला से संबन्ध ररूते हैं । परन्तु किसी किसी विद्वान का मत है कि 'फरिस, आसिरिया, ओर बाबुल की कारीगरी की भी कुछ २ 'झलक उनमें अवश्य है'। इस टीला में जो पदार्थ मिले हैं वे जैन ग्रंथों में लिखी हुई बातों को दृढ़ करते हैं अर्थात् जो कथाएँ जैन ग्रंथों में हैं वे इन प्राप्त चित्रों और मूर्त्तियों पर उत्कीर्ण हुई उपलब्ध हुई हैं । ८ – इन शिलालेखों से एक बात और भी सिद्ध होती है वह यह है कि जैन धर्म बहुत पुराणा धर्म है । दो हजार वर्ष पहिले भी इस धर्म के अनुयायी इन २४ तीर्थङ्करों में विश्वास रखते थे। यह धर्म बहुत करके उस समय भी वैसा था जैसा कि इस समय है । गण, कूल और शाखा का विभाग तब भी हो गया था । स्त्रियां साधुवृत्ति धारण कर भ्रमण करती थीं। धार्मिक जनों में उस समय उनका विशेष आदर था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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