Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 12 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 3
________________ तेरहवाँ भाग । अंक १२ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । suranc जैनहितैषी BUTE न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ प्रभातोदय । ( ले० - पण्डित रामचरित उपाध्याय । ) ( १ ) जगो भारत, सुनी बातें, पड़े हो व्यर्थ क्यों बेगम । मागशीर्ष २४४४. दिसम्बर १९१७. जो इस मंत्र को मनमें, 'हमारे तुम तुम्हारे हम' । ( २ ) मही निर्गन्ध हो, नभ भी-कभी निःशब्द हो जाये, तदपि हम तुम रहें हँसते, मिलाये हाथ को हरदम । ( ३ ) . पढ़ो इतिहास यदि अपने, खुलें तो आपकी आँखें, तुरत यह ज्ञान सच्चा हो, किसीसे भी न हम थे कम । ( ४ ) कभी निःस्वत्व या दुर्बल न समझो आप अपनेको, अविद्या प्रस्त होने से, वृथा कुछ हो गया है भ्रम । ( ५ ) -करो उद्योग निर्भय हो, निराशा कौन चिड़िया है ? हम उनके वंशधारी हैं, कि जिनसे काँपता था यम । ( ६ ) करोड़ों मिट गये तारे, हवा चलती प्रभाती है, न सोनेका समय यह है, जगत से हृढ चला है तम । ( प्रतापसे उद्धृत । )Page Navigation
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