Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha 01
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 4
________________ प्रकाशकीय वक्तव्य कुछ वर्ष हुए यह ग्रन्थ रामा प्रिंटिंग प्रेस दिल्लीको छापनेके लिये दिया गया था और उस समय इसके लगातार १६२ पृष्ठ छप भी गये थे। छपाईका यह सब काम दिल्ली ठहरकर ही कराया गया था। कुछ परिस्थितियोंके वश सर. सावा आदि जाना हुआ और छपाईका काम बन्द करना पड़ा। बादको जय छपाई. का काम पुनः शुरू करना चाहा तब नसके टाइप काफी घिस गये थे और नया टाइप मँगाकर काम शुरू करना प्रसने मंजूर नहीं किया। इस तरह छाईका काम टलता रहा। इस बीचमें पं० परमानन्दजीने परिचयात्मक प्रस्तावना लिखनेकी अनुमति मांगी और उसे पाकर वे प्रस्तावना लिखने में प्रवृत्त होगये। प्रस्तावना लिखनेमें धारणासे कहीं अधिक समय लग गया। क्योंकि कितने ही ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंको जांच के लिये दूसरी पुरानी शुद्ध प्रतियां बाहरसे मंगानी पड़ी और कितने ही ग्रन्थकारोंके समय तथा कृतियोंका निश्चय करनेके लिये काफी रिसर्च (सोज) का काम करना पडा । साथमें 'अनेकान्त' तथा अन्य ग्रन्थोंके प्रकाशनादि सम्बन्धी दूसरे काम भी करने पड़े। इससे ग्रन्थको पुनः प्रेसमें जानेके लिये और भी विलम्ब हो गया। जब वह पुनः प्रेममें जानेके योग्य हुश्रा तो संस्थाको अर्थिक संकटने प्रा घेरा और इससे उसका प्रेसमें जाना रोकना पड़ा। हाल में बाबू छोटेलालजी कलकत्ताकी एक हजारकी महायताको पाकर छपाई श्रादिका शेष कार्य पूरा किया गया है । यही सब इस ग्रन्थके पाशातीत विलन्बसे प्रकाशित होनेका कारण है । यह ग्रन्थ जैन साहित्य और इतिहासके विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डालनेवाला है। ऐसे ग्रंथों के प्रकाशनकी इस समय बड़ी ज़रूरत है। इसका दूसरा भाग, जो अपनश भाषाके ग्रन्थोंसे सम्बन्ध रखता है और बहुत कुछ ऐतिहासिक सामग्रीको लिये हुए है, तय्यारीके निकट है । श्राशा है उसके प्रकाशनके लिये कोई टानी महानुभाव अपना आर्थिक सहयोग प्रदान करेंगे, जिससे वह शीघ्र प्रकाशमें लाया जा सके। अन्तमें मैं डाक्टर ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डीलिट. का भारी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने अपना अंग्रेजी प्राक्कथन (Fore word) बहुत पहले लिखकर भेजनेकी कृपा की थी, और जो समय-समय पर अपनी शुभ सम्मतियोंसे बराबर अनुगृहीत करते रहे हैं। जुगलकिशोर मुख्तार

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