Book Title: Jain Dharmamruta Author(s): Hiralal Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 6
________________ - प्रा थन . वहुत पहलेसे यह इच्छा थी कि जैन ग्रन्थोंसे एक ऐसा सङ्कलन तैयार किया जाय, जिसमें जैनधर्मके सभी मूल-मन्तव्य आजायें और जो जैनधर्मके जिज्ञासु किसी भी जैनेतर विद्वान्के हाथमें दिया जा सके। उसी इच्छाके फलस्वरूप यह ग्रन्थ पाठकोंके कर-कमलोंमें उपस्थित है। इस सङ्कलनका क्या 'नाम' रखा जाय, यह वात एक लम्बे समय तक विचारणीय वनी रही । अन्तमें प्रस्तुत ग्रन्थ-मालाके विद्वान् सम्पादकोंने इसका 'जैनधर्मामृत' नाम रखकर मेरे हर्प और उत्साहको सहस्र-गुणित किया, इसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। - जैनधर्मके जितने भी प्राचीन ग्रन्थ हैं, वे प्रायः अर्धमागधी या शौरसेनी प्राकृतमें रचे गये हैं और क्योंकि यह सङ्कलन संस्कृत भाषाके ग्रन्थोंसे करना अभीष्ट था, अतः इस ग्रन्यके सङ्कलनमें संस्कृत ग्रन्थोंका उपयोग किया गया है। जिन-जिन ग्रन्थोंसे श्लोकोंका सङ्कलन किया गया है, उनकी तालिका परिशिष्टमें दे दी गई है। कौन श्लोक किस ग्रन्थके किस अध्यायका है, इसकी सूचना श्लोकोंकी अनुक्रमणिकामें कोष्ठकके भीतर दे दी गई है। जो पाठक जैनधर्मके ज्ञाता हैं, उनके लिए यह प्रयास नहीं है, अपितु उनके लिए है जो कि जैनधर्मके जिज्ञासु हैं किन्तु जिनके पास इतना समय नहीं है कि वे जैनधर्मके बड़े-बड़े ग्रन्थोंका अवगाहन कर उन्हें समझ सकें। जहाँतक बना है कठिनसे कठिन विषयको सरलसे सरल शब्दोंमें प्रकट करनेका प्रयास किया गया है और उन्हीं बातोंका सङ्कलन और विवेचन प्रस्तुत ग्रन्थमें किया गया है जिनकी जानकारी सर्व-साधारणजनोंके लिए सर्वप्रथमPage Navigation
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