Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 4
________________ प्रकाशकीय दार्शनिक चिन्तन की अनेक जटिल, परन्तु महत्त्वपूर्ण समस्याओं में कार्यकारण की समस्या अपना विशेष स्थान रखती है। विज्ञान, दर्शन ओर विशेष रूप से धर्म-दर्शन कार्यकारण की पृष्ठभूमि पर सृष्टि-रचना की समस्या का समाधान ढूढ़ने का प्रयत्न करता है। दर्शन शास्त्र के विभिन्न विषयों-उदाहरणार्थ तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, नीतिशास्त्र आदि में कारण-कार्यवाद प्रमुख एवं गहन चर्चा का विषय रहा है। परमतत्त्व की खोज वस्तुत: आदिकारण की खोज है। कार्य-कारणवाद सिद्धान्त की गम्भीर दार्शनिक समस्याओं के समाधान हेतु ही सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद, सदसद्कार्यवाद, परिणामवाद, विवर्तवाद आदि सिद्धान्त अस्तित्व में आये। जैन दर्शन भी अन्यान्य दर्शनों की भांति कार्य-कारण के सिद्धान्त को मानता है और अपने अनेकान्तवाद, नयवाद सिद्धान्त के अनुरूप ही कार्य-कारण को सदसदात्मक मानते हुए सृष्टि के कारण के रूप में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुष या पुरुषार्थ - इन पांच कारणों को मानता है जिसे जैन दार्शनिक शब्दावली में 'पंचकारण समवाय' कहा गया है। ध्यातव्य है कि जैन दर्शन सृष्टि को अनादि मानने के कारण उसके कर्ता के रूप में किसी भी वाह्य सत्ता-ईश्वर आदि का सर्वथा निषेध करता है। अनेक जैन आचार्यों ने अन्य भारतीय दर्शनों को मान्य कार्य-कारणवाद की स्वस्थ समीक्षा करते हुए अपने पंचकारण समवाय सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की है। इन समस्त विषयों पर गम्भीर, तर्कपुरस्सर एवं सविस्तर चर्चा डॉ० श्वेता जैन ने अपनी प्रस्तुत पुस्तक 'जैन दर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण', में की है। जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में कार्य-कारणवाद की सम्यक् एवं विस्तृत चर्चा करने वाली सम्भवतः यह प्रथम पुस्तक है। हम आभारी हैं डॉ० श्वेता जैन तथा प्रस्तुत कृति को अपनी विद्वत्तापूर्ण 'भूमिका' से गौरवान्वित करने वाले प्रोफेसर धर्मचन्द जैन, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के प्रति जिन्होंने यह पुस्तक पार्श्वनाथ विद्यापीठ को प्रकाशनार्थ दी। इस ग्रन्थ के प्रफ संशोधन तथा प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्थाओं के सम्पूर्ण उत्तरदायित्व का निर्वहन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के सहनिदेशक डॉ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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