Book Title: Jain Adhyayan ki Pragati
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 6
________________ गई। उसके बाद अक्टूबर में गुजरात युनिवर्सिटी ने उन्हें डी० लिट की उपाधि से विभूषित करके राजनैतिक नेताओं के स्थान में विद्वान् का सम्मान करने की प्रथा का पुनरुद्धार किया। जैन साहित्य की उपेक्षा क्यों ? __ जैन धर्म का साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, तामिल, राजस्थानी और गुजराती में जो उपलब्ध है वह इतना व्यापक और विविध विद्या के क्षेत्रों को स्पर्श करने वाला है कि शायद ही कोई विषय ऐसा होगा जो अछूता रहा हो। फिर भी आधुनिक विद्वनों की उपेक्षा इसके अध्ययन के प्रति क्यों रहीयह एक विचारणीय प्रश्न है। - जैन धर्म भारतवर्ष का एक प्राचीन और स्वतंत्र धर्म है-इस विषय में अब तज्ज्ञ विद्वानों में सदेह नही । एक समय था जब कुछ विद्वानों ने अपने ही अज्ञान के कारण इसे बौद्ध या वैदिक धर्म की शाखा के रूप में बता दिया था और आज भी कुछ विद्वान उसे वैदिक धर्म की शाखा बताते हैं । किन्तु प्राचीन वैदिक दर्शन और प्राचारों के साथ जब प्राचीन जैन दर्शन और प्राचारों की तुलना करते हैं तब स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों में मौलिक अन्तर है। प्राचार में दोनों धर्मों में भागे चल कर समन्वय का प्रयत्न देखा जाता है किन्तु दार्शनिक मान्यता में आज भी मौलिक भेद कायम है। ऐसी स्थिति में जैन धर्म को वैदिक धर्म या दर्शन की शाखा कहना ठीक नहीं। इतनी प्रासंगिक चर्चा के बाद मैं मूल प्रश्न कि जैन धर्म के साहित्य की उपेक्षा क्यों हुई इस पर श्राता हूँ। इस प्रश्न का उत्तर सहज नहीं। हमें इसके लिये आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के इतिहास तक जाना होगा । जैन धर्म की प्रकृति का विचार करना होगा। भगवान महावीर और बुद्ध समकालीन थे। किन्तु दोनों की प्रकृति में जो भेद देखा जाता है वही भेद जैन और बौद्ध धर्म में भी है। जैन धर्म साधकों का धर्म है। उसमें प्रचार गौण है। बौद्ध धर्म साधकों का धर्म हो कर भी साधना के समान ही उसमें प्रचार का भी महत्व है। भगवान महावीर ने तीर्थकर वन कर विहार करके जैन धर्म का प्रचार किया यह सच है। किन्तु प्रचार में उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि साधक अपनी साधना में रत रहे, दुनिया से दूर रहे और अपना कल्याण करें। किंतु उनका यह उपदेश नहीं रहा कि साधक साधना के समय भी धर्म प्रचार के कार्य में उतना ही ध्यान दे जितना

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