Book Title: Jain Adhyayan ki Pragati
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 14
________________ ३० साहित्य की विशालता और व्यापकता देखते हुए ये प्रयत्न अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। अभी तो समन जैन साहित्य को आधुनिक संशोधन पद्धति से प्रकाशित करने का महत् कार्य विद्वानों के समक्ष पड़ा है और ऐसे कार्य केवल व्यक्तिगत प्रयत्नों से नहीं किन्तु संमिलित होकर पारस्परिक सहकारिता से ही हो सकते हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि जिनों के सांप्रदायिक अभिनिवेश के कारण उनकी यह साहित्यिक बहुमूल्य सपत्ति अध्ययन के क्षेत्र से लुप्त हो रही है किन्तु वे बुद्धिपूर्वक प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। जब मूल संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थ के प्रकाशन की यह हालत है तो उनके आधार पर अाधुनिक भापाओं में लिखे गये अध्ययन ग्रन्थों की बात उठती ही नहीं। हजारों की तादाद में मूल जैन ग्रन्थों के होते हुए भी उनके आधार पर लिखे गये अध्ययन ग्रन्थ अंगुलियों पर भी नहीं गिने जा सकते यह हालत है । ' ऐसी परिस्थिति में जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, प्रकाशन आदि के लिए जो भी प्रयत्न हो उनका स्वागत हमें करना चाहिए। परम संतोष की बात है कि बिहार सरकार ने संस्कृत पालि के अतिरिक्त प्राकृत विद्यापीठ की भी स्थापना ई० १९५६ में की है और उसका संचालन डा० हीरालाल जैन जैसे प्रतिष्टित विद्वान् को सौपा है। आशा की जाती है कि यह विद्यापीठ जैन साहित्य के बहुमुखी अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जायगा। राष्ट्र पति डा. राजेन्द्रप्रसाद का ध्यान भी इस उपेक्षित क्षेत्र की ओर गया यह परम सौभाग्य की बात हुई । उनके सत्प्रयत्नों से प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की स्थापना १९५३ में हुई है और प्रारंभिक कार्य व्यवस्थित होकर अब वह भी इस क्षेत्र में कार्य करने लगी है। मुनिराज श्री पुण्यविजयजी का सम्पूर्ण सहकार इसे प्राप्त है। प्रारम्भ में जैन आगमों के संशोधित संस्करण तथा अन्य सांस्कृतिक महत्व के प्राकृत ग्रन्थों का प्रकाशन करने की योजना है। इससे विद्वानों को आधारभूत मौलिक प्रामाणिक सामग्री अध्ययन के लिए मिलेगी। पिछले अक्टूबर में सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई ने अपने पिता की स्मृति में 'भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर' की स्थापना अहमदावाद में की है। प्रारंभ में यह संस्था जैन भडारो को, जो कि कई स्थानों में हैं, उन्हें एकन करके व्यवस्थित करेगी। इससे विद्वानों को यह सुभीता हो जायगा कि उन्हे अभीष्ट ग्रन्थों की प्रतियाँ एक ही स्थान से मिल सकेगी। श्राशा की जाती है कि विद्वानों को हस्तलिखित प्रतियों को प्राप्त करने में जो कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है वह इससे दूर हो जायग । अभी-अभी नवम्बर में दिल्ली में होनेवाले विश्वधर्म सम्मेलन -

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