Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
PARTY
NEW
THAR
-
11
Dainik paparhapa
Japan
५०
MANAware
R
भारत-सा
-
:
-
॥
maram
-
--
ve
P-
-
A
HAMAR
rok
RAPHY
KEE
THAN
HAYAN
AS
MES
ARTH
.
."
PATI
ArFN
विप्रदास
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन अध्ययन की प्रगति
अवसर
[ अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के १३ में अधिवेशन के. पर दिल्ली में 'प्राकृत और जैनधर्म' विभाग के अध्यक्ष पद से ता. २८-१२-५७ को दिया गया व्याख्यान । ]
भारती
प्राकृति
RA
पत्रिका नं० २३
दलसुख मौलाय
अकादमी..
क्रमांक 89.41.......
जैन संस्कृति संशोधन मण्डल
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपस्थित विद्वद्वृन्द !
सर्वप्रथम आप सब गुरुजनों का आभार मानना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि आपने मुझे इस पद पर बैठा दिया । किन्तु जब मैं अपनी योग्यता का विचार करता हूँ तब यह प्रतीत होता है कि आपने मुझ जैसे व्यक्ति को अवसर दिया है उसका कारण मेरी विद्वत्ता नहीं किन्तु जैन धर्म और प्राकृत भाषा के क्षेत्र में अध्ययन करनेवालों की कमी - यह है ।' जो इस क्षेत्र में विद्वत्ता रखते हैं उन्होंने पुन: इस पद को स्वीकार करना उचित नहीं समझा होगा तब मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति को यह अवसर उन्होंने दिया - ऐसा मैं हृदय से मानता हूँ । मेरे लिये यह श्रानन्द और प्रतिष्ठा की वस्तु होने पर भी जब मैं अनुभव करता, हूँ कि जैन धर्म और प्राकृत भाषा का क्षेत्र विद्वानों द्वारा उपेक्षित है तब हृदय दुःख का अनुभव करता है । और इस उपेक्षा के कारणों की खोज की और मन स्वतः प्रवृत्त हो जाता है । इन कारणों को चर्चा के पहले मैं दिवंगत श्रात्मा डॉ० हर्टल का स्मरण करना अपना कर्तव्य समझता हूँ । डॉ० हर्टल का परिचय आप सबको देने की श्रावश्यकता नहीं । जैन साहित्य के क्षेत्र में कथा साहित्य का जो सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व है उस ओर विद्वानों का ध्यान श्राकृष्ट करने का श्रेय डॉ० हर्टल को था । उनकी ८४ वर्ष की आयु में गत वर्ष मृत्यु हुई उससे जो क्षति हुई उसकी पूर्ति हो नहीं सकती ।
1
'
इस दुःखद घटना के साथ ही जब हम कुछ श्रानन्ददायक घटनानों की श्रोर ध्यान देते हैं तब हमारा हृदय गद्गद् हो जाता है और ऐसा लगता है कि इस उपेक्षित क्षेत्र में कार्य करने वालों की सराहना भारतवर्ष के मनीषी और रजनैतिक नेता भी करने लगे हैं यह एक शुभ लक्षण है। पिछले जून के • महीने में प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी का अभिनन्दन समारोह 'अखिल भारतीय पंडित सुखलालजी सन्मान समिति' जिसके अध्यक्ष श्रीमोरारजी देसाई थे, की ओर से यम्बई में हुआ । उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् के करकमलों से पंडितजी के लेखों को 'दर्शन और चिन्तन' नामक संग्रह जो तीन भागों में मुद्रित था, उन्हें समर्पित किया गया और ५५ हजार रुपयों की थैली भी, दो
3
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
गई। उसके बाद अक्टूबर में गुजरात युनिवर्सिटी ने उन्हें डी० लिट की उपाधि से विभूषित करके राजनैतिक नेताओं के स्थान में विद्वान् का सम्मान करने की प्रथा का पुनरुद्धार किया। जैन साहित्य की उपेक्षा क्यों ? __ जैन धर्म का साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, तामिल, राजस्थानी
और गुजराती में जो उपलब्ध है वह इतना व्यापक और विविध विद्या के क्षेत्रों को स्पर्श करने वाला है कि शायद ही कोई विषय ऐसा होगा जो अछूता रहा हो। फिर भी आधुनिक विद्वनों की उपेक्षा इसके अध्ययन के प्रति क्यों रहीयह एक विचारणीय प्रश्न है।
- जैन धर्म भारतवर्ष का एक प्राचीन और स्वतंत्र धर्म है-इस विषय में अब तज्ज्ञ विद्वानों में सदेह नही । एक समय था जब कुछ विद्वानों ने अपने ही अज्ञान के कारण इसे बौद्ध या वैदिक धर्म की शाखा के रूप में बता दिया था
और आज भी कुछ विद्वान उसे वैदिक धर्म की शाखा बताते हैं । किन्तु प्राचीन वैदिक दर्शन और प्राचारों के साथ जब प्राचीन जैन दर्शन और प्राचारों की तुलना करते हैं तब स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों में मौलिक अन्तर है। प्राचार में दोनों धर्मों में भागे चल कर समन्वय का प्रयत्न देखा जाता है किन्तु दार्शनिक मान्यता में आज भी मौलिक भेद कायम है। ऐसी स्थिति में जैन धर्म को वैदिक धर्म या दर्शन की शाखा कहना ठीक नहीं। इतनी प्रासंगिक चर्चा के बाद मैं मूल प्रश्न कि जैन धर्म के साहित्य की उपेक्षा क्यों हुई इस पर श्राता हूँ।
इस प्रश्न का उत्तर सहज नहीं। हमें इसके लिये आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के इतिहास तक जाना होगा । जैन धर्म की प्रकृति का विचार करना होगा। भगवान महावीर और बुद्ध समकालीन थे। किन्तु दोनों की प्रकृति में जो भेद देखा जाता है वही भेद जैन और बौद्ध धर्म में भी है। जैन धर्म साधकों का धर्म है। उसमें प्रचार गौण है। बौद्ध धर्म साधकों का धर्म हो कर भी साधना के समान ही उसमें प्रचार का भी महत्व है। भगवान महावीर ने तीर्थकर वन कर विहार करके जैन धर्म का प्रचार किया यह सच है। किन्तु प्रचार में उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया कि साधक अपनी साधना में रत रहे, दुनिया से दूर रहे और अपना कल्याण करें। किंतु उनका यह उपदेश नहीं रहा कि साधक साधना के समय भी धर्म प्रचार के कार्य में उतना ही ध्यान दे जितना
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपनी साधना में । यही कारण है कि त्रिपिटक में बुद्ध के 'चरथ भिक्खवे चारिकां " बहुजन हिताय बहुजनसुखाय' जैसे वाक्य मिलते हैं किन्तु जैन आगमों में ऐसे
वाक्य नहीं मिलते | परिणाम स्पष्ट है कि बुद्ध के समय का एक प्रभावशाली धर्म होकर भी जैन धर्म प्रचार की दृष्टि से पिछड़ गया। स्वयं पिटक इस बात के साक्षी हैं कि जहाँ कहीं बुद्ध गये प्रायः सर्वत्र बड़े-बड़े नगरों में प्रभावशाली निर्ग्रन्थ उपासको से उनका मुकाबला हुआ और अन्त में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा |
1
प्रचार को प्राधान्य नहीं होने से जैन धर्म बौद्ध धर्म के समक्ष अपना प्रभाव कायम न रख सका किन्तु साहित्य निर्माण की दृष्टि से भी यह पिछड़ गया यह बात नहीं है | त्रिपिटक और उनकी कथा के अतिरिक्त पालि में अन्य बौद्ध साहित्य नहीं बना है जब कि प्राकृत में जैन साहित्य निर्माण की अविच्छिन्न धारा बीसवी शताब्दी तक कायम रही है । बौद्ध धर्म का महायानी साहित्य
!
संस्कृत में लिखा गया और जैन धर्म का भी साहित्य संस्कृत में लिखा गया ।
चौदहवीं शताब्दी के बाद बौद्ध संस्कृत साहित्य प्रायः
नही लिखा गया जब कि
3
जैन संस्कृत साहित्य का निर्माण आज भी हो रहा है । बौद्ध साहित्य सोलोनी, तिब्बती, चीनी आदि भारतीयेतर भाषाओं में अपने प्रचार क्षेत्र के कारण लिखा जाता रहा जब कि जैन साहित्य अपभ्रंश और तज्जन्य प्राचीन और आधुनिक भारतीय प्रादेशिक भाषाओं में मर्यादित रहा ।
जैन और बौद्ध दोनों धर्मों का प्रतिवाद करने के लिए वैदिक विद्वान् संनद्ध थे किन्तु अपनी संस्कृतभक्ति और अपनशद्वेष के कारण जैन आगमों और पालि पिटकों से वैदिक विद्वान् प्रायः अनभिज्ञ ही रहे । ऐसा अभी एक भी प्रमाण देखने में नहीं श्राया जिससे स्पष्ट सिद्ध हो कि प्राचीन काल के वैदिक विद्वानो ने प्राकृत या पालि के ग्रन्थ देखकर उनकी विस्तृत श्रालोचना की हो । | वैदिको द्वारा आलोचना तब ही सभव हुई जब जैन और बौद्ध ग्रन्थों का निर्माण 'संस्कृत में होने लगा ।
✓
r
श्रालोचना- प्रत्यालोचना का क्षेत्र खास कर वादप्रधान दार्शनिक संस्कृत साहित्य है । जैनों की अपेक्षा बौद्धों ने इस क्षेत्र में प्रथम प्रवेश किया । जैन परम्परा के सिद्धसेन और समन्तभद्र के पहले भी नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक अपना प्रभाव इस क्षेत्र में जमा चुके थे और वैदिक दार्शनिकों में एक हलचल पैदा कर चुके थे । वात्स्यायन जैसे वैदिकों ने नागार्जुन के पक्ष का खंडन किया था और उनको वसुबन्धु और दिग्नाग जैसे दिग्गज बौद्ध दार्शनिकों
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वारा उत्तर भी मिल चुका था। यही समय है जब जैन दार्शनिकों ने भी इस
क्षेत्र में पदार्पण किया और सिद्धसेन, मल्लवादी, समन्तभद्र जैसे प्रवल जैन - दार्शनिकों ने वैदिक और बौद्ध विद्वानों के मतों का खण्डन किया। उस समय के बाद के ग्रन्थों के देखने से यह प्रतीत होता है कि समन्तभद्र या मल्लवादी के ग्रन्थों में जो प्रौढ़ पांडित्य और वादक्षमता है वह उस समय के किसी भी चैदिक या बौद्ध विद्वानो के ग्रन्थों से कम नहीं। फिर भी आगे चलकर जिस प्रकार बौद्ध और वैदिक विद्वानों के बीच पारस्परिक खण्डन का जो तांता लग गया वैसा जैन और बौद्धों के बीच या जैन और वैदिक के बीच देखा नहीं जाता । हम स्पष्ट रूप से पाते हैं कि बौद्ध और वैदिकों में उत्तरोत्तर एक के बाद एक परस्पर खंडन करने वाले विद्वानों का तांता-सा लग गया है। कुमाV रिल, उद्घोतकर, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर, शंकराचार्य, शांतरक्षित, कमलशील, वाचस्पति मिश्र, जेतारि, जयन्त, दुर्वेक, उदयन, ज्ञानश्री श्रादि विद्वानों के नाम दार्शनिक साहित्य के क्षेत्र में तेजस्वी तारो की तरह चमकते हैं। इनके ग्रन्थों को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन विद्वानों ने परस्पर जो खंडन किया है वह अपने से पूर्व होने वाले विद्वानों के ग्रन्थों को अपने समक्ष रख कर ही किया है। यह काल वस्तुतः बौद्ध और वैदिक विद्वानों के बीच प्रवल संघर्ष का काल रहा-इसकी साक्षी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक ग्रंथ देते हैं। किंतु बौद्ध और वैदिकों के इस दीर्घकालीन संघर्ष में जैनों का क्या स्थान रहा इसका जब विचार करते हैं तब निराश होना पढना है। नागार्जुन से लेकर ज्ञानश्री तक के बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थ देखें या वात्स्यायन से गंगेश तक के वैदिक ग्रन्थ देखें तब यह नहीं पता लगता कि उन दार्शनिकों के समक्ष जैन पक्ष भी कोई महत्त्वपूर्ण पक्ष था। सुमति या पात्रकेसरी जैसे जैन विद्वानों के मतों का विस्तृत खडन बौद्ध ग्रन्थों में देखा जाता है अवश्य, किन्तु वह प्रासंगिक है और प्रायः 'एतेन' की प्रक्रिया से है। स्याद्वाद या अनेकान्त जैसे वाद की समीक्षा भी सांख्य और मीमांसकों के साथ कर दी गई है। और तो और शंकराचार्य जैसे विद्वान् वैदिक दार्शनिक ने भी अनेकान्तवाद का जो खण्डन किया वह इतना |छिछोरा है कि उनके नाम को शोभा भी नही देता और उनके बाद के वेदान्त के विद्वानों ने उसमें कुछ भी अपनी ओर से विशेष जोडा नहीं है। इतनी चर्चा से इतना स्पष्ट है कि दार्शनिकों के इस संघर्ष काल में जैन पक्ष बिलकुल गौण रहा । संघर्ष केवल बौद्ध और वैदिकों के बीच रहा। ।
ऐसा होते हुए भी जब हम उसी दीर्घ काल के बीच होने वाले जैन दार्श
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
निकों के ग्रन्थ देखते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध और वैदिकों के इस संघर्ष का पूरा लाभ जैनों ने भी उठाया है । मल्लवादी हो या समन्तभद, . अकलंक हो या हरिभद्र, विद्यानन्द्र हो या अभयदेव, प्रभाचन्द हो या वादी देव, हेमचन्द्र हो या यशोविजय-इन सभी जैन विद्वानों के दार्शनिक ग्रंथ इस वात की साक्षी देते हैं कि उन्होंने अपने-अपने काल के बड़े-बड़े बौद्ध और वैदिक विद्वानों के मतों की विस्तृत समीक्षा की है और खास कर उन दोनों के संघर्ष से निष्पन्न दोनों की खूबियों और खामियों का परिज्ञान करके अपने ग्रन्थों को समृद्ध किया है। इतना ही नहीं किन्तु वादी और प्रतिवादी दोनों की दलीलो को सुनने वाले न्यायाधीश के निर्णय में जो ताटस्थ्य होता है और , दोनों के समन्वय का जो प्रयत्न होता है वैसा ही ताटस्थ्य और प्रयत्न इन जैन विद्वानों के ग्रन्थों में देखा जाता है। मल्लवादी का नयचक्र, हरिभद्र का शाखवार्तासमुच्चय,' अकलंक का राजवार्तिक और न्यायविनिश्चय, विद्यानंद की अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अभयदेव का वादमहार्णव श्रादि ग्रंथ जैन दर्शन के अपने-अपने काल के उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इतना ही नहीं किन्तु उस काल के वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों की तुलना में भी उनका स्थान उच्चतर नही तो बरावरी का तो है ही। इतना होते हुए भी इन ग्रन्थों का उपयोग तत्कालीन या उत्तरकालीन बौद्ध या वैदिक विद्वानों ने नहींवत किया है-यह भी एक सत्य हकीकत है। या यों कहना चाहिए कि जैनों का प्रयत्न बाद में उतरने का रहा और उतरे भी किन्तु वह प्रयत्न एकपक्षीय रहा। अर्थात् जैनाचार्यों ने तो अपने-अपने काल के समर्थ दार्शनिकों के विविध मतो की विस्तृत समालोचना अपने ग्रन्थों में की किन्तु जैन श्राचार्यों को उत्तर नहीं दिया गया। इसके अन्य कारण जो भी रहे हो किन्तु मेरे मत से एक कारण यह तो अवश्य है कि जैनो ने ग्रन्थो की रचना करके उन्हें अपने भडारों में तो अवश्य रखे किन्तु उन ग्रन्थो का प्रचार नहीं किया। इसका प्रमाण यह है कि जैन ग्रन्थों की हस्तप्रतों की प्राप्ति प्रायः किसी भी जैनेतर ग्रंथ भंडार में नहीं होती। इसके विपरीत जैन ग्रथागारों में जैनों के अलावा बौद्ध और. वैदिक ग्रंथों की सैकड़ों क्या सहनों हस्तप्रतियाँ मौजूद हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि जैन विद्वान् अपने ग्रंथागारों को सभी प्रकार के ग्रंथों से समृद्ध करते थे। इतना ही नहीं किन्तु जैन ग्रन्थों को भी जैन-अजैन सभी प्रकार की सामग्री से समृद्ध करते थे। किन्तु जैन ग्रन्थों का उपयोग जैनेतरों ने उतनी ही मात्रा में किया हो उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।
ऐसा क्यों हुआ? इसका जब हम विचार करते हैं तो हमें उसी, जैन
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति पर थाना पड़ता है। बौद्धों के स्थान-स्थान पर अपने विहार होते थे जहाँ बौद्ध भिक्षु स्थायी रूप से रहते थे और अपना अध्ययन अध्यापन करते थे। यही बात चैदिक विद्वानों के विषय में भी थी। अर्थात् उनका निवास स्थान स्थायी होता था । बौद्ध विहार एक प्रकार से आगे चलकर विद्यापीठ का रूप ले लेते थे और यही बात वैदिकों के मठों की भी है। किन्तु जैनों के ऐसे. न विहार थे, न सठ। जैन आचार्य तो एक स्थान में रह नही सकते थे सदा विचरण करते थे। अतएव उनकी विद्यापरंपरा स्थायी रूप ले नहीं पाती थी। पुस्तकों का बोझ लेकर वे विहार भी नहीं कर सकते थे। पुस्तक लिखकर भांडार में रख दी और अपने आगे चल पड़े-यही प्रायः उन जैन विद्वानों की जीवन प्रक्रिया थी। बीच-बीच में कुछ जैन श्राचार्यों ने चैत्यवास के रूप में स्थायी हो जाने का प्रयत्न किया किन्तु जैन संघ में ऐसे प्राचार्यों की प्रतिष्ठा टिक नहीं सकी और आगे चलकर पुनः ग्रामानुग्राम विचरण करने वालो की प्रतिष्ठा होने लगी और चैत्यवासी परपरा हीन दृष्टि से देखी जाने लगी। ऐसी स्थिति में विद्यापरंपरा का सातत्य और प्रचार संभव नहीं था। जैनेतरी को जैन मत जानने का साधन जैन ग्रन्थ नहीं किन्तु जैन व्यक्ति ही रहा। ऐसी स्थिति में जैनेतर ग्रन्थों में जैन ग्रन्थ के आश्रय से विचार होना संभव न था। अतएव हम देखते हैं कि जैनेतर अन्यों में जैन मत और ग्रन्थों की चर्चा नहींवत् है।
जैनों के पक्ष की चर्चा अन्य ग्रन्थो में नहीं मिलती इसका एक कारण और भी है और वह यह है कि दार्शनिकों में प्रायः अपने से विरोधी वादों की समीक्षा करने का प्रयत्न देखा जाता है। बौद्ध और वैदिक मन्तव्यों में जेसा ऐकान्तिक विरोध है वैसा जैन और वैदिकों में या बौद्ध और जैन में परस्पर ऐकान्तिक विरोध है भी नहीं। अतएव वैदिक और बौद्ध परस्पर प्रबल विरोधी मन्तव्यों की विचारणा करे यह स्वाभाविक है। जैनों ने तो दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध और वैदिकों के दार्शनिक विरोध को अनेकान्त के श्राश्रय से मिटाने का प्रयत्न किया है। ऐसी स्थिति में जैनाचार्य बौद्ध या वैदिक श्राचार्यों के समक्ष एक प्रवल विरोधी रूप से उपस्थित नहीं भी होते हैं। यह भी एक कारण है कि जैनाचार्यों के ग्रन्थों की चर्चा या प्रचार अन्य दार्शनिकों में नहीं हुआ।
एक और दार्शनिक दृष्टि से प्रबल विरोधी पक्ष के रूप में जैन पक्ष को जब स्थान नहीं मिला तव जैनों के साहित्य को देखने की जिज्ञासा का उत्थान ही जैनेतरों में नहीं हुआ तो दूसरी ओर जैनों को अपने मन्तव्यों को लिखित
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
रूप में सर्वत्र प्रचारित करने की प्रेरणा या आवश्कता भी प्रतीत नहीं हुई। वे अपने भक्तों के बीच ही अपने साहित्य का प्रचार करते रहे । भक्तों में भी श्रावक या उपासक वर्ग तो उन हस्तलिखित पोथियों की पूजा ही कर सकता था किन्तु पढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करता था। साधुवर्ग में भी कुछ ही साधु संस्कृत-प्राकृत पढ़-लिख सकते थे अन्य अधिक संख्या तो ऐसी ही होती थी जो वाह्य तपस्या श्रादि साधनों के द्वारा ही अपनी उन्नति में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में सब विषयों में सदैव साहित्य का सर्जन होकर भी प्रचार में पाया नहीं तो इसमें श्राश्चर्य की बात नहीं है। ___ अंग्रेज यहाँ आये और उसके बाद मुद्रण-कला का विकास हुआ। प्रारम्भ में तो जैन पुस्तकों के प्रकाशन का ही विरोध हुआ और वह विरोध मर्यादित रूप में आज भी है। किन्तु जब वेवर, याकोबो और मोनियर विलियम्स जैसे विद्वानों ने जैन साहित्य का महत्त्व परखा और उसकी उपयोगिता राष्ट्रीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यधिक है-इस बात को कहा तब विद्वानों का , ध्यान जैन साहित्य की ओर गया। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित जैन साहित्य की मात्रा अत्यधिक होते हुए भी प्राकृत और अपभ्रंश भाषा उसके विशेष अध्ययन में बाधक इसलिये हुई कि सस्कृत के अध्ययन अध्यापन की परपरा के समान प्राकृत-अपभ्रश की अध्ययन अध्यापन परपस भारतवर्ष में थी ही नहीं। और जो जैन साहित्य प्रकाशित भी हुआ उसका अधिकांश इस दृष्ट से तो प्रकाशित हुआ ही नहीं कि इसका उपयोग जैनेतर विद्वान् अपने संशोधन कार्य में भी करें। अतएव हम देखते हैं कि अत्यधिक ग्रन्थ पत्राकार मुद्रित हुए और उनमें विस्तृत प्रस्तावना, अनुक्रमणिका और शब्दसूचियाँ आदि उपयोगी सामग्री दी नहीं गई और आधुनिक संशोधन पद्धति से उनका सपादन भी नहीं हुआ। इन कारणों से विद्वानों की उपेक्षा श्राधुनिक काल में भी जैन साहित्य के प्रति रही। अध्ययन की आवश्यकता
इस उपेक्षा के कारण जैन दर्शन के मर्म को पकडना प्राचीन और आधुनिक काल के विद्वानों के लिए कठिन हो गया है। यही कारण है कि अनेकान्त के विषय में प्राचीन काल में शंकराचार्य द्वारा दिये गए श्राक्षेपों को जिस प्रकार अन्य वेदान्ती विद्वान् दोहराते रहे उसो प्रकार आधुनिक विद्वानों में किसी एक ने जो श्राक्षेप किया दूसरो के द्वारा वही दोहराया जाता है और प्रायः यह देखा जाता है कि मूल ग्रंथ अब उपलब्ध होने पर भी उन्हें देखने का कष्ट
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्वान लोग नही उठाते । विद्वानों के आक्षेपों का उत्तर देने का तो यह स्थान नहीं । जिन्हें जिज्ञासा हो वे पं० महेन्द्र कुमार द्वारा लिखित 'जैन दर्शन' देखें। किन्तु जब अाज सह-अस्तित्व और पचशील की बात कही और प्रचारित की जाती हैं तब यह विचारना तो श्रावश्यक हो गया है कि यह सह-अस्तित्व
और पंचशील की बात भारतवर्ष में से ही क्यो उठी ? इसके पीछे क्या भारतवर्ष की कमजोरी है या भारतीय संस्कृति का जीवातुभूत तत्व समन्वय की भावना है ? मेरी तुच्छ समझ में तो यह आता है कि वैदिक काल से चली आई समन्वय की भावना का ही चरम विकास राजनैतिक क्षेत्र में सह-अस्तित्व और पंचशील का सिद्धान्त है। कमजोर और छोटे राष्ट्र तो और भी हैं किन्तु उन्होंने तो सह-अस्तित्व की आवाज नहीं उठाई। अतएव यह मानना पड़ेगा कि विविध विचारो की क्रीडाभूमि भारतवर्ष में से ही उठनेवाली यह अावाज उसकी अपनी प्राचीन परपरा के अनुकूल है। वेद काल में बहुदेववाद के विरोध का समन्वय 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' यह था। उपनिपद् में तो ब्रह्मतत्त्व के साक्षात्कायो ने ब्रह्म को 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'तरम् अक्षरं च व्यक्ताव्यक्तम्' कह करके एक प्रकार से दो विरोधी धर्मों का समन्वय एक ब्रह्म में किया है। एक ओर ब्रह्म को अवाच्य बताया गया और दूसरी
ओर उसे समझाने के लिए ही तो उपनिषदों की रचना हुई। उपनिपदी में जगत् के मूल में सत्, असत्, वायु, श्राकाश, अग्नि प्रादि कई पदार्थों को बताया गया, तो आखिर इन सब की एकवाक्यता ब्रह्म पदार्थ में की गईयह सब मेरे विचार से समन्वय की ही भ वना के कारण शक्य हुआ है । इतना ही नहीं किन्तु भारतवर्ष के समग्र दर्शनों को अधिकारी भेद से निरूपित करके चरम सीमा पर ब्रह्मवाद को रखा गया यह भी उसी की ओर संकेत है। बौद्ध दर्शन के परस्पर विरोधी संप्रदायों की भी बुद्ध के उपदेश के साथ संगति अधिकार भेद को लेकर ही की गई और शून्यवाद को चरम सीमा में विठाया गया- यह समन्वय नहीं तो क्या है ? ऐसी स्थिति में भारतवर्ष के समग्र दर्शनों का समन्वय करने वाला जैन द.शनिकों का अनेकान्तवाद अब केवल आक्षेपों या उपेक्षा का विषय न रह कर अभ्यास का विषय बने यह आवश्यक है। जहाँ अन्य दार्शनिकों ने मौलिक विरोध को विरोध न मान कर केवल सैद्धान्तिक समन्वय की बात की है वहाँ जैनाचार्यों ने उस बात की सचाई किस प्रकार सिद्ध होती है उसे विस्तार से दिखाने का अपने दार्शनिक ग्रंथों में प्रयत्न किया है । वैदिक वाक्य में तो सिद्धान्त रूपसे कह दिया कि 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' किन्तु इस वैदिक वाक्य की सचाई को सिद्ध करने का श्रेय
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदि किसी को है तो वह जैनाचार्यों को है। जैसे-जैसे दार्शनिक विचारों का । भारतवर्ष में विकास और विस्तार बढ़ता गया वैसे-वैसे जैनों का अनेकान्त उन सब का समन्वय करता गया यह वात कालक्रम से निर्मित जैन दार्शनिक अर्थों से सिद्ध होती है। वस्तुतः देखा जाय तो भारतवर्ष के दार्शनिक विचारों के क्रमिक विकास को अपने में संनिविष्ट करनेवाले ये जैन ग्रन्थ उपेक्षा का नहीं किन्तु अभ्यास का विषय बने यह आवश्यक है। .
अनेकान्त की ही तरह भारतवर्ष में बुद्ध और महावीर से लेकर महात्मा गाँधी, विनोबा तक हिसा के विचार का विकास हुआ है तथा आचरण में अहिंसा की व्यापकता क्रमशः बढ़ते-बढ़ते अाज राजनैतिक क्षेत्र में भी पहुँच । गई है। ऐसी अहिंसा के विशेष अध्ययन की सामग्री जैन ग्रन्थों में है। जिस अहिसा के सिद्धान्त का अग्रदूत भारतवर्ष राष्ट्रसमूह में बना है उस अहिंसा - की परम्परा का इतिहास खोजना अनिवार्य है और उसके लिए तो जैन ग्रन्धों का अध्ययन अनिवार्य होगा ही। यह एक अच्छा लक्षण है जिससे कि जैन अन्थों के अध्ययन की प्रगति अवश्य होगी ऐसा मैं मानता हूँ।
आधुनिक भाषाओं के विकास का अध्ययन बढ़ रहा है और प्रादेशिक प्रचलित भाषानो के उपरान्त बोलियों का अध्ययन भी हो रहा है-यह एक अच्छी बात है जिसके कारण प्राकृत भाषा का भापादृष्टि से अध्ययन अनिवार्य हो गया है। किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतवर्ष के विश्वविद्यालयों की उपेक्षा अभी भी इस ओर बनी हुई है। जब तक प्राकृत भाषा का विधिवत् अध्ययन नहीं होता तब तक आधुनिक प्रादेशिक भापात्रो और बोलियों का अध्ययन भी अधूरा ही रहेगा। आशा है इस ओर विश्वविद्यालय के अधिकारीवर्ग ध्यान देंगे और इस कमी को पूरा करेंगे। साहित्योद्धार के प्रयत्न
याकोबी जैसे कुछ विद्वानों ने जैन ग्रन्थों के आधुनिक पद्धति से सस्करण प्रकाशित करके विद्वानों को इस साहित्य के प्रति आकृष्ट किया । आधुनिक युग प्रचार-युग है । अतएव उसका असर जैनों में भी हुआ और इस दिशा में भी प्रयत्न हुए । फलस्वरूप माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, जैन साहित्य उद्धारक फंढ ग्रन्थमाला, आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला,
मूर्तिदेवी जैन अन्य माला, जीवराज जैन ग्रन्थ माला, श्रादि ग्रन्थमालाओं में • श्राधुनिक ढंग से जैन पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। इतना होते हुए भी जैन
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
साहित्य की विशालता और व्यापकता देखते हुए ये प्रयत्न अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। अभी तो समन जैन साहित्य को आधुनिक संशोधन पद्धति से प्रकाशित करने का महत् कार्य विद्वानों के समक्ष पड़ा है और ऐसे कार्य केवल व्यक्तिगत प्रयत्नों से नहीं किन्तु संमिलित होकर पारस्परिक सहकारिता से ही हो सकते हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि जिनों के सांप्रदायिक अभिनिवेश के कारण उनकी यह साहित्यिक बहुमूल्य सपत्ति अध्ययन के क्षेत्र से लुप्त हो रही है किन्तु वे बुद्धिपूर्वक प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। जब मूल संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थ के प्रकाशन की यह हालत है तो उनके आधार पर अाधुनिक भापाओं में लिखे गये अध्ययन ग्रन्थों की बात उठती ही नहीं। हजारों की तादाद में मूल जैन ग्रन्थों के होते हुए भी उनके आधार पर लिखे गये अध्ययन ग्रन्थ अंगुलियों पर भी नहीं गिने जा सकते यह हालत है ।
' ऐसी परिस्थिति में जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन, प्रकाशन आदि के लिए जो भी प्रयत्न हो उनका स्वागत हमें करना चाहिए। परम संतोष की बात है कि बिहार सरकार ने संस्कृत पालि के अतिरिक्त प्राकृत विद्यापीठ की भी स्थापना ई० १९५६ में की है और उसका संचालन डा० हीरालाल जैन जैसे प्रतिष्टित विद्वान् को सौपा है। आशा की जाती है कि यह विद्यापीठ जैन साहित्य के बहुमुखी अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जायगा। राष्ट्र पति डा. राजेन्द्रप्रसाद का ध्यान भी इस उपेक्षित क्षेत्र की ओर गया यह परम सौभाग्य की बात हुई । उनके सत्प्रयत्नों से प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की स्थापना १९५३ में हुई है और प्रारंभिक कार्य व्यवस्थित होकर अब वह भी इस क्षेत्र में कार्य करने लगी है। मुनिराज श्री पुण्यविजयजी का सम्पूर्ण सहकार इसे प्राप्त है। प्रारम्भ में जैन आगमों के संशोधित संस्करण तथा अन्य सांस्कृतिक महत्व के प्राकृत ग्रन्थों का प्रकाशन करने की योजना है। इससे विद्वानों को आधारभूत मौलिक प्रामाणिक सामग्री अध्ययन के लिए मिलेगी। पिछले अक्टूबर में सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई ने अपने पिता की स्मृति में 'भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर' की स्थापना अहमदावाद में की है। प्रारंभ में यह संस्था जैन भडारो को, जो कि कई स्थानों में हैं, उन्हें एकन करके व्यवस्थित करेगी। इससे विद्वानों को यह सुभीता हो जायगा कि उन्हे अभीष्ट ग्रन्थों की प्रतियाँ एक ही स्थान से मिल सकेगी। श्राशा की जाती है कि विद्वानों को हस्तलिखित प्रतियों को प्राप्त करने में जो कठिनाई का अनुभव करना पड़ता है वह इससे दूर हो जायग । अभी-अभी नवम्बर में दिल्ली में होनेवाले विश्वधर्म सम्मेलन -
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
में अहिंसा के विषय में एक विद्यापीठ स्थापित करने की योजना बनाई गई है। उससे भी जैन संशोधन को बल मिलेगा। बनारस के पार्श्वनाथ विद्याश्रम की जैन साहित्य के इतिहास की योजना प्रगति कर रही है और विद्वानों के सहकार से वह पूर्ण होगो तब जैन साहित्य का महत्त्व और उसकी व्यापकता प्रत्यक्ष होगी । बनारस का जैन सस्कृति सशोधन मंडल भी इस क्षेत्र में अपनी सीमित शक्तियों के होते हुए भी कार्य कर रहा है । श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स, बम्बई, महावीर तीर्थक्षेत्र समिति, जयपुर और वीर सेवा मंदिर, दिल्ली का विशेष ध्यान जैन भंडारों को व्यवस्थित करने की ओर गया है और उनके द्वारा हस्तलिखित प्रतिनों को सूचियाँ प्रकाशित हो रही हैं। फलस्वरूप कई अज्ञात ग्रन्थों का पता चला है और ग्रन्थस्थ प्रशस्तिओं के प्रकाशन द्वारा कई ऐतिहासिक तथ्यों को उपलब्धि हुई है। . जैन श्रागों के आधुनिक पद्धति से संशोधित संस्करण, अनुवाद के साथ प्रकाशित करने का प्रयत्न श्वेताम्बर स्था० कान्फ्रेन्स, श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा और प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी ये तीनों संस्थाएँ कर रही हैं । यदि ये संस्थाएँ परस्पर सहकार से इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लग जायें तो कार्य की संपूर्ति सहज और सुचारु रूप से होगी। __ यह परम हर्ष की बात है कि डा. हीरालालजी के प्रयत्न से सिद्धान्त ग्रन्थ पटखण्डागम का धवलाटीका के साथ जो प्रकाशन हो रहा था वह अब १६ भागों में सम्पूर्ण हो गया है। कपायपाहुड भी सानुवाद प्रकाशित हो गया है और महाबंध भी पूर्ण होने जा रहा है। इस तरह से दिगम्बर संप्रदाय के आगम ग्रन्थों का यह प्रकाशन 'अब समाप्तप्राय है और जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त को जानने का एक उत्तम साधन विद्वानों को उपलब्ध हो गया है। ई०१६५६-५७ की प्रगति
मौलिक संशोधन के क्षेत्र में डेक्कन कालेज, पूना सराहनीय कार्य कर रही है। उसके द्वारा प्रकाशित डॉ. देव का History of Jaina Monachism और डा० दावने का Nominal Composition in Middle-IndoAryan अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। डा० देव ने जैन श्रमणों के प्राचारों का कालक्रम से मूल प्राकृत और सस्कृत ग्रन्थों से निरूपण एक बहुश्रत विद्वान् की योग्यता से किया है। भूमिका रूप से उन्होंने श्रमण परपरा का प्रादुर्भाव कैसे हुश्रा इस समस्या के विषय में विविध मतों की समी क तामस्वय
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सुझाव रखा है और श्रमण संघ और उसके प्राचारों के ग्रन्थगत तथ्यों का संवाद उपलब्ध शिला लेखों से भी दिखाया है। श्रमणों और बहुजन समाज में परस्पर प्राचारों के विषय में किस प्रकार आदान-प्रदान हुआ है यह भी सप्रमाण दिखाने का सफल प्रयत्न किया है। अब तक जैन दर्शन के विषय में तो अंग्रेजी में कुछ पुस्तकें उपलब्ध थी किन्तु जैन श्रमणों के प्राचारों का सांगोपांग निरूपण हुश्रा नहीं था। डा० देव की यह पुस्तक इस क्षेत्र में मार्गसूचक स्तंभ के रूप में हमें उपलब्ध हुई है । इस विषय के लिये कितनी विपुल सामग्री उपलब्ध है यह भी स्पष्ट हो गया है। ढा० देव इस क्षेत्र में अपना अध्ययन जारी रखें और ऐसे ही उत्कृष्ट ग्रन्थ को भेंट हमें देते रहें यही उनसे निवेदन है।
प्राकृत और पालि भाषा के समासों का अध्ययन डा० दावने ने कुशलतापूर्वक करके प्राकृत भाषा के इस विषय के प्रध्ययन की जो कमी थी उसे दूर किया है । लेखक ने प्राकृत और पालि भापा के समासी के प्रयोगों का अध्ययन कालक्रम से विकासक्रम की दृष्टि से किया है । डा० दावने की यह पुस्तक प्राकृत और पालि भाषा के अध्येताओं के लिये कई नये तथ्यों को सप्रमाण उपस्थित करती है। खास कर प्राकृत वैयाकरणों ने अपने प्राकृत भाषा के व्याकरणों में समास प्रकरण दिया नहीं है। प्राकृत व्याकरण की इस कमी की पूति तो डा० दावने ने की ही है। साथ ही संस्कृत और पालि की तुलना में प्राकृत समासों की विशेषता का भी दिग्दर्शन हो गया है।
जैन संस्कृति संशोधन मंडल द्वारा प्रकाशित जैन कला के क्षेत्र में लब्धप्रतिष्ठ विद्वान डा० उमाकान्त शाह का ग्रन्थ Studies in Jaina Art जैन कला विषयक एक महत्वपूर्ण पुस्तक सिद्ध होगी। विद्वान् लेखक ने इसमें उत्तर भारत में उपलब्ध जैन कला के महत्त्वपूर्ण अवशेषों की विवेचना की है। तथा जैन पूजा के प्रतीकों की ऐतिहासिक आलोचना सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से करने का श्रेय भी प्राप्त किया है। इतना ही नहीं किन्तु गुर्जर शिल्प कला का पार्थक्य विद्वानों के समक्ष सप्रमाण उपस्थित करने का सत्प्रयत्न भी इस ग्रन्थ में लेखक ने किया है। पुस्तक जैन कला के विषय में अपूर्व है इतना ही नहीं किन्तु प्रतिपाद्य विषय का सांगोपांग प्रामाणिक निरूपण भी उपस्थित करती है। ____ हामवूर्ग से Blubn का महानिबन्ध शीलांककृत 'चउपन्न महापुरुस चरिय' के विषय में प्रकाशित हुआ है यह सूचित करता है कि जकोवी की परंपरा जर्मनी
-
--
-amera
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
में अभी भी जीवित है। श्राचार्य शीलांककृत 'चउपन्न महापुरुस चरिय' श्रभी प्रकाशित है । प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी उसे प्रकाशित करने जा रही है ।
जैन धर्म के प्रचार का भौगोलिक दृष्टि से वर्णन करने वाली अनेक पुस्तकों की सकला बन गई है । उस सकला में पी० बी० देसाईकृत Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs एक महत्वपूर्ण कड़ी है । इसमें तामिल, तेलुगु और कन्नड भाषा-भाषी प्रदेशो में जैन धर्म के प्रचार का ऐतिहासिक श्राधारों पर वर्णन है । तथा हैदराबाद प्रदेश के कन्नड शिला लेखो का संग्रह, अँग्रेजी विवरण और हिन्दीसार के साथ पहली बार ही दिया गया है । पुस्तक का प्रकाशन जीवराज जैन ग्रन्थमाला में हुआ है । उसी कक्षा में श्री राय चौधरी ने Jainism in Bihar लिखकर एक और कडी जोडी है । प्रादेशिक दृष्टि से विविध अध्ययन ग्रन्थो के द्वारा ही समग्रभाव से जैन धर्म के प्रचार क्षेत्र का ऐतिहासिक चित्र विद्वानों के समक्ष सकता है। अभी भी कई प्रदेशों के विषय में लिखना बाकी ही है ।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस से प्रकाशित डा० मोहन लाल मेहता का महानिबन्ध Jaina Psychology कर्मशास्त्र का मानसशास्त्र की दृष्टि से एक विशिष्ट अध्ययन है । अंग्रेजी में डा० ग्लाझनपू ने जैन कर्म मान्यता का जैन दृष्टि से विवरण दिया ही था किन्तु उस मान्यता का सवाद विसंवाद, श्राधुनिक मानसशास्त्र से तथा अन्य दर्शनों से किस प्रकार है यह तो सर्वप्रथम डा० मेहता ने ही दिखाने का प्रयत्न किया है ।
$
कद में छोटी किन्तु पूजा सबधी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर लिखी गई प्रसिद्ध विद्वान् श्राचार्य कल्याण विजयजी को 'जिनपूजापद्धति' पुस्तिका में जैन पूजा पद्धति में कालक्रम से कैसा परिवर्तन होता श्राया है इस विषय का सुन्दर निरूपण है ।
M
जैन कल्चरल रिसर्च सोसाइटी द्वारा डा० उमाकान्त शाह का निबंध 'सुवर्ण भूमि में कालकाचार्य' प्रकाशित हुआ है । इतिहास के विद्वानों का ध्यान इस पुस्तक की ओर मैं विशेषतः आकर्षित करना चाहता हूँ । प्रथम बार ही -लेखक ने प्रामाणिक अाधार से ये स्थापनाएँ की हैं कि जैनाचार्य कालक भारतवर्ष के बाहर सुवर्ण भूमि तक गये थे । सुवर्णभूमि वर्मा, मलयद्वीपकल्प, सुमात्रा और मलयद्वीप समूह है । श्राचार्य कालक अनाम ( चंपा ) तक गये |
I
2
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
श्राचार्य कालक ही श्यामार्य हैं और अनुयोग कर्ता भी हैं। उस निवन्ध में इतिहास के विद्वानों के लिये विक्रम संवत् और गर्दभिल्ल के विषय में भी पुनः विचार करने की प्रेरणा है।
उसी सोसायटी की एक अन्य पुस्तक है 'स्वाध्याय' । इसमें प्रारमा के विषय में विचारणा महात्मा भगवानदीन ने की है।
__जैन दर्शन के आत्मस्वरूप को केन्द्र में रख कर समन भाव से भारतीय दर्शनसमत प्रात्मा और ईश्वर के स्वरूप का तथा श्राध्यात्मिक साधन का विशद वर्णन पंडित श्री सुखलालजी ने 'अध्यात्म विचारणा' नाम से गुजराती
और हिन्दी में प्रकाशित उनके तीन व्याख्यानों में किया है। यह छोटा-सा किन्तु सारगर्भित ग्रन्थ दार्शनिकों को भारतीय दर्शनों को समन्वयप्रधान दृष्टिः कोण से देखने की दृष्टि देगा इसमें संदेह नहीं है। यह ग्रन्थ अध्यात्म की विचारणा के मूल उद्देश्य आत्मोन्नति की ओर भी अग्रसर करेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान् पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने 'जैन दर्शन हिन्दी में लिख कर वस्तुतः जैन दर्शन का बड़ा उपकार किया है। संस्कृत जानने वालों को जैन दर्शन का अध्ययन सुलभ था किन्तु हिन्दी में समग्र भाव से जैन दर्शन का परिचय देनेवाली कोई भी पुस्तक नहीं थी। इस महती कमी की पूर्ति का श्रेय पं० महेन्द्र कुमार को है। ग्रन्थ विस्तार से लिखा गया है और दार्शनिक वाद-विवाद में जैनों का कैसा प्रयत्न रहा इसका अच्छा चित्र उपस्थित करने में पंडितजी को सफलता मिली है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन वर्णी प्रन्थमाला में हुआ है।
भगवान् महावीर के ऐतिहासिक विस्तृत चरित्र की संपूर्ति अभी बाकी है। फिर भी डा० उपाये का व्याख्यान Mahavira and His Philosophy of Life भगवान् महावीर के जीवन का जो संदेश है उसे आकर्षक ढंग से उपस्थित करता है और भगवान महावीर के प्रति आदर उत्पन्न करने की पर्याप्त सामग्री देता है। लोकभोग्य जीवन चरित्र लिखने में सिद्धहस्त लेखक श्री { वालाभाई देसाई 'जयभिक्खू ने गुजराती में लोगभोग्य ऐसे भगवान महावीर
के दो जीवन चरित्र निर्ग्रन्थ भगवान महावीर' और 'भगवान् महावीर' । लिखे हैं। उनसे भगवान् महावीर की जीवन साधना का अच्छा परिचय मिलता
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
है । जैन कथाओं को आधुनिक ढङ्ग से सजाकर लिखने में भी श्री बालाभाई कुशल हैं और श्री रतिलाल देसाई भी। इन दोनों के कथासंग्रह क्रमशः 'सद्वाचन श्रेणी' और 'सुवर्ण कंकण' के नाम से प्रकाशित हुए हैं। जीवन को उन्नत बनाने में ये कथाएं सहायक हो ऐसी चोट इनमें विद्यमान है।
अपनश भाषा का साहित्य क्रमशः प्रकाशित हो रहा है किन्तु अभी कई प्रन्थ अप्रकाशित ही हैं। डा. हरिवंश कोछड़ ने 'अपभ्रश साहित्य' लिख कर अपभ्रंश के अध्येताओं के लिये एक अच्छा परिचय ग्रन्थ उपस्थित किया है। डा० कोछठ ने इस गन्थ में अपभ्रंश भाषा का परिचय उसके विकास के । साथ दिया है तथा हिन्दी भाषा के साथ अपभ्रंश के सम्बन्ध को भी स्पष्ट किया है । तदुपरांत अपभ्रंश के विविध साहित्यका परिचय कराया है।
पिछले दो वर्षों में अभिनन्दन और स्मृति ग्रन्थों के रूप में अनेक विद्वानों के सहकार से जो लेख-संग्रह प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखते हुए 'एक बात तो अवश्य ध्यान में आती है कि विद्वानों का ध्यान जैन दर्शन, समाज, धर्म आदि की ओर गया है किन्तु अभी प्राकृत भाषा विषयक विशेष अध्ययन उपेक्षित है । जैन कला की दृष्टि से 'श्राचान श्री विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रन्थ' सुरुचिपूर्ण सामग्री से सपन्न है। जैन कला के विविध क्षेत्रों को स्पर्श करने- . वाले अनेक चित्र और लेखों के कारण यह अभिनन्दन ग्रन्थ कला के अध्येताओं के लिये संग्रहणीय बन गया है । तदुपरांत जैनदर्शन, धर्म, समाज आदि के विषय में भी अच्छे लेखों का संग्रह इसमें हुआ है। विशेष बात यह है कि हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती तीनों भाषाओं के लेख संग्रह में हैं।
ईसा.की १७वीं शती में होनेवाले जेनदर्शन के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी की स्मृति रूप 'यशोविजय स्मृति ग्रन्थ' का प्रकाशन उपाध्याय जी के विविध विषयक पांडित्य और आध्यात्मिक जीवन को स्फुट करने में सफल हुधा है और उपाध्यायजी की जैन साहित्य को जो देन हैं उसका अच्छा चित्र उपस्थित करता है।
Pune
IPonder
-aftaarderwortal
-
थाचार्य राजेन्द्र सूरि जिन्होंने 'अभिधानराजेन्द्र' महाकोप का निर्माण किया था, उनके निधन की पचासवीं तिथि के स्मारक रूप से 'श्रीमद विजय राजेन्द्र सुरि स्मारक ग्रन्थ' का प्रकाशन हुआ है। विशालकाय इस ग्रन्थ में हिन्दी अग्रेजी और गुजराती में प्राचार्य राजेन्द्र सूरि के जीवन के अतिरिक्त दर्शन और संस्कृति; जिन, जिनागम और जैनाचार्य; जैनधर्म की प्राचीनता और.
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसार; ललितकला और तीर्थकर; हिन्दी जैन साहित्य आदि विषय में 'विविध सामग्री का संकलन हुआ है।
नये लेखकों के गुरु स्थानीय तीन जीवित विद्वानों की पचास से भी अधिक वर्ष की लेखन सामग्री एकत्र होकर प्रकाशित हुई है-यह इस उपेक्षित क्षेत्र की 'आनन्ददायक घटना है। प्रज्ञाचक्षु श्री पं० सुखलालजी के हिन्दी-गुजराती लेखों का संग्रह तीन भागों ( एक हिन्दी और दो गुजराती) में ढाई हजार से भी अधिक पृष्ठो में 'दर्शन और चिन्तन' नाम से प्रकाशित हुश्रा है। इसमें पंडितजी के लेखों को धर्म और प्रमाज, दार्शनिक मीमांसा, जैनधर्म और दर्शन, परिशीलन, श्रयं, प्रवासकथा, आत्मनिवेदन-इन खण्डों में विभक्त किया -गया है। वाचक को प्रज्ञाचक्षु पडितजी की साहित्य-साधना का नत्र साक्षात्कार होता है तव वह अवाक रह जाता है और जीवन में एक नई प्रेरणा लेकर उन्नति की ओर अग्रसर होता है - ऐसी जीवनी शक्ति इन लेखों में है। कोई चर्चा ऐसी नहीं होती जिसका सत्य और समुन्नत जीवन से स्पर्श न हो। पुरानी चर्चा भी श्राज नई जैसी लगती है क्योकि पंडितजी किली भी विषय का निरूपण उपलब्ध पूरी सामग्री के आधार पर करते हैं और पूर्वग्रह नहीं होता । इस दृष्टि से उनके लेखों का मूल्य कालग्रस्त नहीं होता।
. श्री जुगलकिशोर मुख्तार को ऐतिहासिक चर्चाएँ सुविदित हैं। उनके दीघकालीन ऐतिहासिक अन्वेषण कार्य को एकत्र करके जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, नाम से एक ग्रन्थ में प्रकाशित किया गया है। श्री मुख्तार जी की लगन और अध्यवसाय का पता तो इसमें लगता ही है, उपरांत जैन साहित्य और इतिहास की अनेक गुत्थियां सुलझाना श्रमसाध्य होने पर भी इन वयोवृद्ध संगोधक का धैर्य कभी नहीं टूटा यह जब हम उनके लेखो द्वारा जानते हैं तब जीवन में उत्साह लेकर ही पुस्तक से अलग हो सकते हैं। अन्वेषकों के लिये तो यह ग्रन्थ अनिवार्य सा है।।
, श्री नाथूरामजी प्रेमीजी के विविध विषयक लेखों का संग्रह 'जैन साहित्य
और इतिहास' प्रथम प्रकाशित हो गया था किन्तु उसकी संशोधित और परिचर्धित आवृत्ति अभी हाल में प्रकाशित हुई है। ऐसा संग्रह पुनः प्रकाशित करना पड़ा-यह विद्वानों की तद्विषयक जिज्ञासा और उन लेखों का माहात्म्य सूचित , करना ही है। साथ ही वयोवृद्ध श्री.प्रेमीजी अपने, विषय में कितने
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
अद्यतन रहते हैं यह भी उनके विविध विषयके लेखों में किये गये संशोधन-- परिवर्धन के द्वारा ज्ञात होता है। ।
डा० ए० एन० उपाध्ये जैन और प्राकृत भाषा के विविध क्षेत्रों में लिखने-- वालों में सूर्धन्य हैं। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तकों और विविध विषयक लेखो. की एक सूची Books and Papers अभी प्रकाशित हुई है। इस सूची से उनका विविध क्षेत्रव्यापी पांडित्य तो दृष्टिगोचर होता ही है साथ ही जैन विद्या. की आधुनिक उन्नति का लेखा और उसमें डा० उपाध्ये की जो विशिष्ट देन है. उसका भी पता लगता है और उनके प्रति श्रादर द्विगुणित हो जाता है।
डा० पिशल कृत 'प्राकृत व्याकरण' अब हमें अगरेजी भाषा में भी उप-- लब्ध हो गया है । डा० सुभद्र झा जैसे सुयोग्य भापातच्चविद् ने इसका जर्मना से अंगरेजी में अनुवाद करके प्राकृतभापारसिकों का मार्ग अत्यन्त सरल कर दिया है। निसन्देह यह अन्य प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिये आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना वह जब लिखा गया था, तब था। यह भी श्रानन्द का विषय है कि शीघ्र ही इसी व्याकरण का हिन्दी भाषा में भी अनुवाद प्रकाशित होने जा रहा है। हिन्दी में अनुवाद डा० हेमचन्द्र जोशी ने. किया है।
डा० सुनीति कुमार चटर्जी और सुकुमार सेन द्वारा संपादित A Middle... Indo-Aryan Bender का नवीन सशोधित और परिवर्धित सस्करण भापाशाख की दृष्टि से टिप्पणी के साथ दो भाग में प्रकाशित हुआ है। इसमें पालि प्राकृत के कालक्रम से उपलब्ध विविध नमूने ई० पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर ई० १५वीं शताब्दी तक के दिये गये हैं।
M
कुपाणकालीन प्राकृत ग्रन्थ 'अंगविना' का संपादन श्री मुनि पुण्यविजय जी ने अनेक प्रतियों के आधार से किया है और उसे प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, यनारस ने प्रकाशित किया है । प्राकृत भाषा के अध्ययन के उपरांत कुपाणकालीन भारतीय सांस्कृतिक अध्ययन के लिये भी भंगविजा ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। उसकी सांस्कृतिक सामग्री का परिचय डा० मोतीचन्द्र ने अंग्रेजी में और डा० अग्रवाल ने हिन्दी में दिया है। किन्तु अंगविजा का मूल विषय ज्योतिष से संबंध रखता है। शरीर के विविध अवयवों और अन्य वस्तुओं के आधार पर भविष्यकथन की प्रक्रिया का वर्णन विस्तार से इस ग्रन्थ में है। ग्रन्थ के इस मूल प्रतिपाद्य विषय का सामुद्रिक शास्त्र के अन्य ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक.
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
mund
अध्ययन आवश्यक है। तज्ज्ञ विद्वान् इस ग्रन्थ की सामग्री का इस दृष्टि से अध्ययन करेंगे तो बहुत-सी नवीन सामग्री उन्हें मिलेगी ऐसा मेरा विश्वास है। । धवला' टीका के साथ 'षट्खडागम' के अंतिम तीन भाग-१४, १५
और १६ प्रकाशित हो गये हैं। और अब यह महाग्रन्थ विद्वानों को पूर्ण उपलब्ध हो गया है । डा० हीरालालजी को इसके लिये अभिनन्दन है।
भारतीय ज्ञानपीठ के महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों में पंडित श्री महेन्द्रकुमारजी द्वारा संपादित अकलंककृत 'तत्वार्थवार्तिक' का दूसरा भाग प्रकाशित हो जाने से इस दार्शनिक ग्रन्थ का सुसम्पादित संस्करण विद्वानों को अब उपलब्ध हो गया है। महाबन्ध का चौथा-पाँचवाँ भाग पं० श्रीफूलचन्द्रजी द्वारा -संपादित हुआ है। 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' का संपादन डा० उपाध्ये ने और पं० फूलचंद्रजी ने किया है। उससे दिगम्बर समाज में प्रचलित नित्य-नैमित्तिक कायों में उपयोगी संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी पाठों का शुद्ध रूप जिज्ञासुश्री को मिल गया है। इतना ही नही किन्तु संस्कृत प्राकृत का हिन्दी अनुवाद
भी होने से मुमुक्षुओं के लिये यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। । पूज्यपाद कृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' प्राचार्य अभयनन्दिकृत 'महाधुनि' के साथ पं० शंभुनाथ त्रिपाठी और पं० महादेव चतुर्वेदी के द्वारा संपादित हो कर अपने पूर्ण रूप में प्रथम बार ही विद्वानों के समक्ष उपलब्ध हो रहा है । यह व्याकरणशास्त्र के तुलनात्मक अध्येताओ के लिए ग्रन्थरत्न सिद्ध होगा। डॉ. वासुदेव शरण ने इसकी भूमिका लिखी है और उन्होंने कई नये ऐतिहासिक तथ्यों की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्पित किया है। 'व्रततिथिनिर्णय नामक ग्रन्थ का संपादन पं० नेमिचंद ने कुशलता से किया है और विस्तृत भूमिका में विविध व्रतों और उद्यापनों का परिचय दिया है। मूल ग्रन्थकर्ता का निर्णय हो नही सका है किन्तु संपादक के मत से सत्रहवीं शती के अंतिम चरण में किसी भट्टारक ने इसका सकलन किया है। 'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन' में प्र.० नेमिचंद्र ने दो.भाग में अपभ्रंश भाषा के और हिन्दी भाषा के जैन लेखको की विविध विषयक कृतियों का परिचय दिया है । 'मगलमत्र णमोकार-एक अनुचितन' में प० नेमिचंद्र ने इस महामन्त्र का माहात्म्य वर्णित किया है और साथ ही योग, श्रागम, कर्मशास्त्र, गणितशास्त्र, कथासाहित्य आदि में इस मंत्र की जो सामग्री मिलती है और उन शाखों से जो इसका संबंध है उसे विस्तार से निरूपित किया है। इन सभी ग्रन्थों के प्रकाशन के लिये भारतीय ज्ञानपीठ के संचालकों को विशेषतः धन्यवाद है।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवराज जैन ग्रन्थमाला में पूर्वोक्त Jainism in South India के अतिरिक्त निम्न संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थ भी सुसंपादित हो कर प्रकाशित हुए हैं-१. नरेन्द्रसेन कृत 'सिद्धान्त सार संग्रह' का संपादन पं० जिनदास ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद भी दिया है। इसमें जैन संमत सात तत्त्वों का विवेचन है । २. पद्मनदिकृत 'जंबूदीवपश्नत्ति संगह' का संपादन डॉ० उपाध्ये तथा डॉ० हीरालाल जैन ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद पं वालचन्द्र ने किया है। प्रस्तावना में जैन भूगोल के अनेक ग्रन्थों का तथा प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय का परिचय दिया है। । 'द्वादशारनय चक्र' का तृतीय भाग प्रकाशित हो गया है।
श्राचार्य हरिभद्र का योगविषयक प्राकृत ग्रन्थ 'योगशतक' अभी तक श्रप्रकाशित ही था । डा० इन्दुकला झवेरी ने बड़े परिश्रम से उसका सपादन और गुजराती विवेचन करके उसे प्रकाशित किया है। उसकी भूमिका में वैदिक, बौद्ध और जैन योग मार्ग का तुलनात्मक अध्ययन और प्राचार्य हरिभद्र की जीवनी विस्तार से दी है। ___ डा० उपाध्ये ने 'श्रानन्दसुन्दरीसहक' सपादित किया है। यह ग्रन्थ प्रथम ही प्रकाश में आ रहा है । इसके लेखक हैं धनश्याम और संस्कृत टीकाकार हैं भहनाथ । डा० उपाध्ये ने प्रस्तावना के अतिरिक्त भाषा शास्त्र की दृष्टि से टिप्पणी भी दी हैं।
श्राचार्य हेमचन्द्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' के दो पर्वो का हिन्दी अनुवाद श्री कृष्णलाल वर्मा ने किया है और हिन्दी जगत् को इस जैन पौराणिक ग्रन्थ का रसास्वादन कराया है। आशा करता हूँ कि गोडी जी ट्रस्ट के ट्रस्टी इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का पूरा हिन्दी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित करेंगे। । हाल की 'गाथासप्तशती' का मराठी अनुवाद विस्तृत भूमिका के साथ श्री
जोगलेकर ने किया है। भूमिका में भाषा की विवेचना के उपरांत उस समय 'का सामाजिक और राजनैतिक चित्र भी सप्तशती के आधार पर उपस्थित किया गया है । इसके लिये जोगलेकर के हम सब ऋणी रहेगे।
जैन शिलालेख सग्रह' का तृतीय भाग डा० गुलावचन्द्र चौधरी की विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ है । डा० चौधरी ने जैन संघ के विविध गच्छों . की परंपरा का परिचय शिलालेखो में उल्लिखित तथ्यो के आधार पर दिया है।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
Pankrantedindian
इतना ही नहीं किन्तु जैन धर्म का प्रचार कहाँ कब हुआ इसका भी शिलालेखों में प्राप्त सामग्री के आधार से विवेचन एक इतिहास के विद्वान् की तटस्थता के
साथ किया है। , बिकानेर जैन लेख संग्रह' के नाम से भी अगरचन्द्र और भंवरमलजी नाहटा ने बिकानेर के मंदिर, प्रतिमा, धर्मशाला आदि में प्राप्त लेखों को एकत्र करके मुद्रित किया है। उससे अनेक जैन गच्छों और कुलों का परिचय प्राप्त होता है।
महावीर ग्रन्थमाला, जयपुर की ओर से 'पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' का श्री काशलीवाल द्वारा संपादित तृतीय भाग प्रकाशित हुआ है । उससे कई अद्यावधि अज्ञात जैन ग्रन्थों का पता चलता है।
प्रो० एन० वी० वैद्य ने 'नलझहा' और 'बंभदतो' की द्वितीय श्रावृत्ति संपादित और प्रकाशित करके अध्येताओ की कठिनाइयों को दूर किया है।
कवि श्री अमर मुनि ने 'सामायिक सूत्र' का विवेचन उदार दृष्टि से किया है । उसका द्वितीय सस्करण प्रकाशित हुआ है। उससे ग्रन्थ की उपादेयता सिद्ध होती है । एक और ग्रन्थ 'प्रकाश की ओर' प्रकाश में आया है जिसमें श्री अमर मुनि के आध्यात्मिक प्रवचनों का संग्रह श्री सुरेश मुनि ने किया है। ये प्रवचन जीवन के हर क्षेत्र को स्पर्श करते हैं और समूचे मानव को उन्नत बनने की प्रेरणा देते हैं। - वर्णी ग्रन्थ माला से 'वर्णी वाणी' का चतुर्थ भाग प्रकाशित हुआ है और द्वितीय भाग का पुनः संस्करण हुना है यह उस संग्रह की उपादेयता सिद्ध करता है।
'रत्नकरंड श्रावकाचार' का हिन्दी भाष्य पहले प्रकाशित हो चुका है अव उसका मराठी अनुवाद भी जीवराज दोशी द्वारा होकर प्रकाशित हो गया है ।
श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने 'अध्यात्म रहस्य' नामक पं० श्राशाधर का ग्रंथ जो अब तक अप्राप्य था खोज कर के हिन्दी विवेचन के साथ सपादित कर के एक बहुमूल्य कृति का उद्धार किया है । जैन योग के जिज्ञासु के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। __ श्री पूरणचंद सामसूखाकृत Lord Mahavira की द्वितीय श्रावृत्ति तेरोपंथी महासभा, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हुई है। इसमें लेखक ने संशोधन और परिवर्धन किया है। भगवान महावीर के जीवन के उपरांत जैनधर्म के
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
127
'प्राचारों और दार्शनिक सिद्धांतों का भी संक्षेप में परिचय दिया है। पुस्तक
जैन आगमों के आधार से लिखी गई है। . Jainism and Modern Thought' के नाम से श्री शोफ द्वारा लिखी गई एक छोटी-सी पुस्तिका स्वय लेखक द्वारा प्रकाशित हुई है। उसमें आधुनिक विचारों के साथ जैनधर्म के विचारों की संगति दिखाने का प्रयत्न है।
श्री प्रेमीजी द्वारा संपादित होकर 'अर्धकथानक' की दूसरी आवृत्ति प्रकाशित हुई है। इस दूसरी श्रावृत्ति में डा० मोतीचंद्र और श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के परिचच लेखों के अलावा संबद्ध अन्य नई उपलब्ध सामग्री भी प्रेमीजी ने दी है। ___ श्री धर्मानंद कोसंबी द्वारा मराठी में लिखित 'पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म का हिन्दी भाषान्तर 'पार्श्वनाथ का चातुर्याय धर्म के नाम से हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बम्बई से प्रकाशित हुश्रा है। यह पुस्तक जैनधर्म के प्राचीन इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।
श्री जयसुखलाल शाह द्वारा सपादित होकर श्री जयंत मुनि के व्याख्यान 'प्रकाशित हुए हैं। व्याख्यानों में अहिंसा और मानवधर्म तथा समन्वय दृष्टि का अच्छा निरूपण है। तथा राजप्रश्नीय सूत्र के विषय में भी व्याख्यान इसमें सगृहीत हैं। ___Jaina Entiquary, जैन सिद्धांत भास्कर, अनेकान्त, जैन सस्य प्रकाश, जैन भारती श्रादि जैन पत्रिकाओं में जैनधर्म, दर्शन, इतिहास आदि विविध विषयों के लेख प्रकाशित हुए हैं। तदुपरांत निम्न महत्वपूर्ण लेख अन्यत्र प्रकाशित हुए हैं(1) Journal of the Asiatic Society (Letters) ___Vol, XXII. No. 1. 1956 -V(i) An Enquiry into Estern Apabhramsha :
___Dr. S. N. Ghosal (ii) Controversy over the Significance of
Apabhramsha and a Compromise between- the views of Jacobi and Grierson :
Dr. S. N. Ghosal
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
(2) वही Vol. XXII. No. 2. 1956 (i) Probable Sources of Some Apabhramsha
Stanzas of Hemachandra: Dr. S.N. Ghosal ( 3 ) Indian Historical Quarterly, December 1956 (i) Some Interesting Sculptures of the Jaina
Goddess Ambica from Marwar :
R. C. Agrawal M. A. ( 4 ) Indian Historical Quarterly, March 1957 (i.) A Note on the Eastern and Western
Manuscripts of Prakrita Paingala :
Dr. S. N. Ghosal (ii) Author of Mulachara : V. Joharapurkar (5) Journal of the Bihar Research Society,
____March 1956 ___ (1) Brahma uult and Jainism :
Dr. T. P. Bhattacharya (6) Oriental Thought January 1956
(1) Inscriptional Prakrit : D Diskalkar (7) Asiatica-Festschrift F. Weller (i) The Vedhas in the Vasudevahindi :
Dr. Alsdorf (ii) Mid-Indiac Verb-system : Dr. Edgarton Wiii) Animals in Jaina Conon : Dr. Kohl
(iv) Mohanaghara : Dr. Roth इस क्षेत्र में जो प्रयत्न हो रहे हैं इसका मैंने श्रापके समक्ष सक्षिप्त चित्रण इसलिये किया है कि आप सभी महानुभावों का ध्यान इस ओर आकर्पित करूँ और आप से भी निवेदन करूँ कि अब पहले जैसा इस क्षेत्र में अंधकार नही है। प्रकाश की किरणें इस ओर भी जा रही है और आप सभी महानुभावों की दृष्टि इस ओर गई तो यह क्षेत्र और आलोकित गोगा ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। .
भारती अंकार
PK प्राकृत भी
मांक ...६.१.५
,
-2001- श्रीशङ्कर मुद्रणालय, हाथीगली, वाराणसी
mumm.in.
net
PRAppRMERA
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
_