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प्रकृति पर थाना पड़ता है। बौद्धों के स्थान-स्थान पर अपने विहार होते थे जहाँ बौद्ध भिक्षु स्थायी रूप से रहते थे और अपना अध्ययन अध्यापन करते थे। यही बात चैदिक विद्वानों के विषय में भी थी। अर्थात् उनका निवास स्थान स्थायी होता था । बौद्ध विहार एक प्रकार से आगे चलकर विद्यापीठ का रूप ले लेते थे और यही बात वैदिकों के मठों की भी है। किन्तु जैनों के ऐसे. न विहार थे, न सठ। जैन आचार्य तो एक स्थान में रह नही सकते थे सदा विचरण करते थे। अतएव उनकी विद्यापरंपरा स्थायी रूप ले नहीं पाती थी। पुस्तकों का बोझ लेकर वे विहार भी नहीं कर सकते थे। पुस्तक लिखकर भांडार में रख दी और अपने आगे चल पड़े-यही प्रायः उन जैन विद्वानों की जीवन प्रक्रिया थी। बीच-बीच में कुछ जैन श्राचार्यों ने चैत्यवास के रूप में स्थायी हो जाने का प्रयत्न किया किन्तु जैन संघ में ऐसे प्राचार्यों की प्रतिष्ठा टिक नहीं सकी और आगे चलकर पुनः ग्रामानुग्राम विचरण करने वालो की प्रतिष्ठा होने लगी और चैत्यवासी परपरा हीन दृष्टि से देखी जाने लगी। ऐसी स्थिति में विद्यापरंपरा का सातत्य और प्रचार संभव नहीं था। जैनेतरी को जैन मत जानने का साधन जैन ग्रन्थ नहीं किन्तु जैन व्यक्ति ही रहा। ऐसी स्थिति में जैनेतर ग्रन्थों में जैन ग्रन्थ के आश्रय से विचार होना संभव न था। अतएव हम देखते हैं कि जैनेतर अन्यों में जैन मत और ग्रन्थों की चर्चा नहींवत् है।
जैनों के पक्ष की चर्चा अन्य ग्रन्थो में नहीं मिलती इसका एक कारण और भी है और वह यह है कि दार्शनिकों में प्रायः अपने से विरोधी वादों की समीक्षा करने का प्रयत्न देखा जाता है। बौद्ध और वैदिक मन्तव्यों में जेसा ऐकान्तिक विरोध है वैसा जैन और वैदिकों में या बौद्ध और जैन में परस्पर ऐकान्तिक विरोध है भी नहीं। अतएव वैदिक और बौद्ध परस्पर प्रबल विरोधी मन्तव्यों की विचारणा करे यह स्वाभाविक है। जैनों ने तो दार्शनिक दृष्टि से बौद्ध और वैदिकों के दार्शनिक विरोध को अनेकान्त के श्राश्रय से मिटाने का प्रयत्न किया है। ऐसी स्थिति में जैनाचार्य बौद्ध या वैदिक श्राचार्यों के समक्ष एक प्रवल विरोधी रूप से उपस्थित नहीं भी होते हैं। यह भी एक कारण है कि जैनाचार्यों के ग्रन्थों की चर्चा या प्रचार अन्य दार्शनिकों में नहीं हुआ।
एक और दार्शनिक दृष्टि से प्रबल विरोधी पक्ष के रूप में जैन पक्ष को जब स्थान नहीं मिला तव जैनों के साहित्य को देखने की जिज्ञासा का उत्थान ही जैनेतरों में नहीं हुआ तो दूसरी ओर जैनों को अपने मन्तव्यों को लिखित