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________________ अद्यतन रहते हैं यह भी उनके विविध विषयके लेखों में किये गये संशोधन-- परिवर्धन के द्वारा ज्ञात होता है। । डा० ए० एन० उपाध्ये जैन और प्राकृत भाषा के विविध क्षेत्रों में लिखने-- वालों में सूर्धन्य हैं। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तकों और विविध विषयक लेखो. की एक सूची Books and Papers अभी प्रकाशित हुई है। इस सूची से उनका विविध क्षेत्रव्यापी पांडित्य तो दृष्टिगोचर होता ही है साथ ही जैन विद्या. की आधुनिक उन्नति का लेखा और उसमें डा० उपाध्ये की जो विशिष्ट देन है. उसका भी पता लगता है और उनके प्रति श्रादर द्विगुणित हो जाता है। डा० पिशल कृत 'प्राकृत व्याकरण' अब हमें अगरेजी भाषा में भी उप-- लब्ध हो गया है । डा० सुभद्र झा जैसे सुयोग्य भापातच्चविद् ने इसका जर्मना से अंगरेजी में अनुवाद करके प्राकृतभापारसिकों का मार्ग अत्यन्त सरल कर दिया है। निसन्देह यह अन्य प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिये आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना वह जब लिखा गया था, तब था। यह भी श्रानन्द का विषय है कि शीघ्र ही इसी व्याकरण का हिन्दी भाषा में भी अनुवाद प्रकाशित होने जा रहा है। हिन्दी में अनुवाद डा० हेमचन्द्र जोशी ने. किया है। डा० सुनीति कुमार चटर्जी और सुकुमार सेन द्वारा संपादित A Middle... Indo-Aryan Bender का नवीन सशोधित और परिवर्धित सस्करण भापाशाख की दृष्टि से टिप्पणी के साथ दो भाग में प्रकाशित हुआ है। इसमें पालि प्राकृत के कालक्रम से उपलब्ध विविध नमूने ई० पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर ई० १५वीं शताब्दी तक के दिये गये हैं। M कुपाणकालीन प्राकृत ग्रन्थ 'अंगविना' का संपादन श्री मुनि पुण्यविजय जी ने अनेक प्रतियों के आधार से किया है और उसे प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, यनारस ने प्रकाशित किया है । प्राकृत भाषा के अध्ययन के उपरांत कुपाणकालीन भारतीय सांस्कृतिक अध्ययन के लिये भी भंगविजा ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। उसकी सांस्कृतिक सामग्री का परिचय डा० मोतीचन्द्र ने अंग्रेजी में और डा० अग्रवाल ने हिन्दी में दिया है। किन्तु अंगविजा का मूल विषय ज्योतिष से संबंध रखता है। शरीर के विविध अवयवों और अन्य वस्तुओं के आधार पर भविष्यकथन की प्रक्रिया का वर्णन विस्तार से इस ग्रन्थ में है। ग्रन्थ के इस मूल प्रतिपाद्य विषय का सामुद्रिक शास्त्र के अन्य ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक.
SR No.010199
Book TitleJain Adhyayan ki Pragati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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