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________________ विद्वान लोग नही उठाते । विद्वानों के आक्षेपों का उत्तर देने का तो यह स्थान नहीं । जिन्हें जिज्ञासा हो वे पं० महेन्द्र कुमार द्वारा लिखित 'जैन दर्शन' देखें। किन्तु जब अाज सह-अस्तित्व और पचशील की बात कही और प्रचारित की जाती हैं तब यह विचारना तो श्रावश्यक हो गया है कि यह सह-अस्तित्व और पंचशील की बात भारतवर्ष में से ही क्यो उठी ? इसके पीछे क्या भारतवर्ष की कमजोरी है या भारतीय संस्कृति का जीवातुभूत तत्व समन्वय की भावना है ? मेरी तुच्छ समझ में तो यह आता है कि वैदिक काल से चली आई समन्वय की भावना का ही चरम विकास राजनैतिक क्षेत्र में सह-अस्तित्व और पंचशील का सिद्धान्त है। कमजोर और छोटे राष्ट्र तो और भी हैं किन्तु उन्होंने तो सह-अस्तित्व की आवाज नहीं उठाई। अतएव यह मानना पड़ेगा कि विविध विचारो की क्रीडाभूमि भारतवर्ष में से ही उठनेवाली यह अावाज उसकी अपनी प्राचीन परपरा के अनुकूल है। वेद काल में बहुदेववाद के विरोध का समन्वय 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' यह था। उपनिपद् में तो ब्रह्मतत्त्व के साक्षात्कायो ने ब्रह्म को 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'तरम् अक्षरं च व्यक्ताव्यक्तम्' कह करके एक प्रकार से दो विरोधी धर्मों का समन्वय एक ब्रह्म में किया है। एक ओर ब्रह्म को अवाच्य बताया गया और दूसरी ओर उसे समझाने के लिए ही तो उपनिषदों की रचना हुई। उपनिपदी में जगत् के मूल में सत्, असत्, वायु, श्राकाश, अग्नि प्रादि कई पदार्थों को बताया गया, तो आखिर इन सब की एकवाक्यता ब्रह्म पदार्थ में की गईयह सब मेरे विचार से समन्वय की ही भ वना के कारण शक्य हुआ है । इतना ही नहीं किन्तु भारतवर्ष के समग्र दर्शनों को अधिकारी भेद से निरूपित करके चरम सीमा पर ब्रह्मवाद को रखा गया यह भी उसी की ओर संकेत है। बौद्ध दर्शन के परस्पर विरोधी संप्रदायों की भी बुद्ध के उपदेश के साथ संगति अधिकार भेद को लेकर ही की गई और शून्यवाद को चरम सीमा में विठाया गया- यह समन्वय नहीं तो क्या है ? ऐसी स्थिति में भारतवर्ष के समग्र दर्शनों का समन्वय करने वाला जैन द.शनिकों का अनेकान्तवाद अब केवल आक्षेपों या उपेक्षा का विषय न रह कर अभ्यास का विषय बने यह आवश्यक है। जहाँ अन्य दार्शनिकों ने मौलिक विरोध को विरोध न मान कर केवल सैद्धान्तिक समन्वय की बात की है वहाँ जैनाचार्यों ने उस बात की सचाई किस प्रकार सिद्ध होती है उसे विस्तार से दिखाने का अपने दार्शनिक ग्रंथों में प्रयत्न किया है । वैदिक वाक्य में तो सिद्धान्त रूपसे कह दिया कि 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' किन्तु इस वैदिक वाक्य की सचाई को सिद्ध करने का श्रेय
SR No.010199
Book TitleJain Adhyayan ki Pragati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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