Book Title: Jain Adhyayan ki Pragati
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 9
________________ निकों के ग्रन्थ देखते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध और वैदिकों के इस संघर्ष का पूरा लाभ जैनों ने भी उठाया है । मल्लवादी हो या समन्तभद, . अकलंक हो या हरिभद्र, विद्यानन्द्र हो या अभयदेव, प्रभाचन्द हो या वादी देव, हेमचन्द्र हो या यशोविजय-इन सभी जैन विद्वानों के दार्शनिक ग्रंथ इस वात की साक्षी देते हैं कि उन्होंने अपने-अपने काल के बड़े-बड़े बौद्ध और वैदिक विद्वानों के मतों की विस्तृत समीक्षा की है और खास कर उन दोनों के संघर्ष से निष्पन्न दोनों की खूबियों और खामियों का परिज्ञान करके अपने ग्रन्थों को समृद्ध किया है। इतना ही नहीं किन्तु वादी और प्रतिवादी दोनों की दलीलो को सुनने वाले न्यायाधीश के निर्णय में जो ताटस्थ्य होता है और , दोनों के समन्वय का जो प्रयत्न होता है वैसा ही ताटस्थ्य और प्रयत्न इन जैन विद्वानों के ग्रन्थों में देखा जाता है। मल्लवादी का नयचक्र, हरिभद्र का शाखवार्तासमुच्चय,' अकलंक का राजवार्तिक और न्यायविनिश्चय, विद्यानंद की अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अभयदेव का वादमहार्णव श्रादि ग्रंथ जैन दर्शन के अपने-अपने काल के उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इतना ही नहीं किन्तु उस काल के वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों की तुलना में भी उनका स्थान उच्चतर नही तो बरावरी का तो है ही। इतना होते हुए भी इन ग्रन्थों का उपयोग तत्कालीन या उत्तरकालीन बौद्ध या वैदिक विद्वानों ने नहींवत किया है-यह भी एक सत्य हकीकत है। या यों कहना चाहिए कि जैनों का प्रयत्न बाद में उतरने का रहा और उतरे भी किन्तु वह प्रयत्न एकपक्षीय रहा। अर्थात् जैनाचार्यों ने तो अपने-अपने काल के समर्थ दार्शनिकों के विविध मतो की विस्तृत समालोचना अपने ग्रन्थों में की किन्तु जैन श्राचार्यों को उत्तर नहीं दिया गया। इसके अन्य कारण जो भी रहे हो किन्तु मेरे मत से एक कारण यह तो अवश्य है कि जैनो ने ग्रन्थो की रचना करके उन्हें अपने भडारों में तो अवश्य रखे किन्तु उन ग्रन्थो का प्रचार नहीं किया। इसका प्रमाण यह है कि जैन ग्रन्थों की हस्तप्रतों की प्राप्ति प्रायः किसी भी जैनेतर ग्रंथ भंडार में नहीं होती। इसके विपरीत जैन ग्रथागारों में जैनों के अलावा बौद्ध और. वैदिक ग्रंथों की सैकड़ों क्या सहनों हस्तप्रतियाँ मौजूद हैं। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि जैन विद्वान् अपने ग्रंथागारों को सभी प्रकार के ग्रंथों से समृद्ध करते थे। इतना ही नहीं किन्तु जैन ग्रन्थों को भी जैन-अजैन सभी प्रकार की सामग्री से समृद्ध करते थे। किन्तु जैन ग्रन्थों का उपयोग जैनेतरों ने उतनी ही मात्रा में किया हो उसका प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। ऐसा क्यों हुआ? इसका जब हम विचार करते हैं तो हमें उसी, जैन

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