Book Title: Jain Adhyayan ki Pragati
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 11
________________ रूप में सर्वत्र प्रचारित करने की प्रेरणा या आवश्कता भी प्रतीत नहीं हुई। वे अपने भक्तों के बीच ही अपने साहित्य का प्रचार करते रहे । भक्तों में भी श्रावक या उपासक वर्ग तो उन हस्तलिखित पोथियों की पूजा ही कर सकता था किन्तु पढ़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करता था। साधुवर्ग में भी कुछ ही साधु संस्कृत-प्राकृत पढ़-लिख सकते थे अन्य अधिक संख्या तो ऐसी ही होती थी जो वाह्य तपस्या श्रादि साधनों के द्वारा ही अपनी उन्नति में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में सब विषयों में सदैव साहित्य का सर्जन होकर भी प्रचार में पाया नहीं तो इसमें श्राश्चर्य की बात नहीं है। ___ अंग्रेज यहाँ आये और उसके बाद मुद्रण-कला का विकास हुआ। प्रारम्भ में तो जैन पुस्तकों के प्रकाशन का ही विरोध हुआ और वह विरोध मर्यादित रूप में आज भी है। किन्तु जब वेवर, याकोबो और मोनियर विलियम्स जैसे विद्वानों ने जैन साहित्य का महत्त्व परखा और उसकी उपयोगिता राष्ट्रीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यधिक है-इस बात को कहा तब विद्वानों का , ध्यान जैन साहित्य की ओर गया। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित जैन साहित्य की मात्रा अत्यधिक होते हुए भी प्राकृत और अपभ्रंश भाषा उसके विशेष अध्ययन में बाधक इसलिये हुई कि सस्कृत के अध्ययन अध्यापन की परपरा के समान प्राकृत-अपभ्रश की अध्ययन अध्यापन परपस भारतवर्ष में थी ही नहीं। और जो जैन साहित्य प्रकाशित भी हुआ उसका अधिकांश इस दृष्ट से तो प्रकाशित हुआ ही नहीं कि इसका उपयोग जैनेतर विद्वान् अपने संशोधन कार्य में भी करें। अतएव हम देखते हैं कि अत्यधिक ग्रन्थ पत्राकार मुद्रित हुए और उनमें विस्तृत प्रस्तावना, अनुक्रमणिका और शब्दसूचियाँ आदि उपयोगी सामग्री दी नहीं गई और आधुनिक संशोधन पद्धति से उनका सपादन भी नहीं हुआ। इन कारणों से विद्वानों की उपेक्षा श्राधुनिक काल में भी जैन साहित्य के प्रति रही। अध्ययन की आवश्यकता इस उपेक्षा के कारण जैन दर्शन के मर्म को पकडना प्राचीन और आधुनिक काल के विद्वानों के लिए कठिन हो गया है। यही कारण है कि अनेकान्त के विषय में प्राचीन काल में शंकराचार्य द्वारा दिये गए श्राक्षेपों को जिस प्रकार अन्य वेदान्ती विद्वान् दोहराते रहे उसो प्रकार आधुनिक विद्वानों में किसी एक ने जो श्राक्षेप किया दूसरो के द्वारा वही दोहराया जाता है और प्रायः यह देखा जाता है कि मूल ग्रंथ अब उपलब्ध होने पर भी उन्हें देखने का कष्ट

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