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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
चमत्कार
प्रभावोत्पादक बनाने और उनकी प्रेषणीयताकी वृद्धिके लिए समास, सन्धि और विशेषण पदोका प्रयोग बहुलतासे किया है । रसविवद्धन, रसशैली और काव्यपरिपाक और रसास्वादन करानेकी क्षमता इस काव्यकी शैलीगत विशेषता है । यद्यपि कविने संस्कृतके समासान्त पदोका प्रयोग खुलकर किया है, परन्तु उच्चारण सगति और ध्वनि अक्षुण्णरूपमें विद्यमान है । संस्कृतगर्भित पदोंके रहनेपर भी कृत्रिमता नहीं आने पायी है । यद्यपि आद्योपान्त काव्यमे संस्कृतके free शब्दोका प्रयोग किया गया है तो भी पदलालित्य रहने से काव्यका माधुर्य विद्यमान है।
क्रियापदो में भी अधिकाश क्रियाएँ संस्कृतकी ज्योंकी त्यो रख दी गई। हैं। जिससे जहाँ-तहाँ विरूपता - सी प्रतीत होती है।
शैलीके उपादानोंमे विभक्तियोंका भी महत्वपूर्ण स्थान है । विभक्तियोका यथास्थान प्रयोग होनेसे चमत्कार उत्पन्न होता है । संस्कृतनिष्ठ शैलीमेसे जानेके कारण - " सदर्प कादम्बिनि गर्जने लगी" जैसे विभक्तिहीन पद इस काव्यमे अनेक आये है, जिससे कठोरता और क्लिष्टता है ।
इस महाकाव्यमे कविने अपनी कवयित्री प्रतिभा द्वारा त्रिशलाके शारीरिक सौन्दर्य, हाव-भाव और वेश-भूषा आदिके चित्रण में रमणीयताकी सृष्टि की है । पाठक सौन्दर्यकी भावनामे मग्न हो अपनी सत्ताको भूल रसमग्न हो जाता है पर त्रिशलाका यह शृगारिक वर्णन मनोविज्ञानकी दृष्टिसे अनुचित है। क्योकि भगवान् महावीरके पूर्व नन्द्यवर्धनका जन्म हो चुका था अतः द्वितीय सतानके अवसरपर महाराज सिद्धार्थ और त्रिशलाकी रगरेलियाँ पाठककै हृदयपर प्रभाव नही छोड़तीं। इन पदोमे कल्पनाकी उड़ान और भावसचारकी तीव्रता हमारे सम्मुख एक भव्य चित्र प्रस्तुत करती है । निम्न पंक्तियाँ दर्शनीय है
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विरंचिने अद्भुत युक्तिसे उसे, सुधामयो शक्ति प्रदान की सुधा ।