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'गीता - दर्शन' का विश्लेषण उसे पहले जगाकर अर्जुन बनाता है और द्वंद्व की सेनाओं के बीच खड़ा कर देता है और इसके बाद आरंभ होती है गीताकार कृष्ण के समानांतर उसके व्याख्याकार ओशो की भूमिका ।
बोध सापेक्षता इस भूमिका की अन्यतम विशेषता है। अन्य टीकाकारों की भांति ओशो का गीता के संदर्भ में अपना कोई विशेष मत या आग्रह नहीं है और न ही उनकी भांति ज्ञान, भक्ति, कर्म-योग, सर्वोदय या साम्यवाद जैसे सिद्धांतों के लिए खींचतान है। यही कारण है कि कहीं उलझन या भटकाव नहीं है। उनमें सहजता के साथ आमने-सामने का उत्तरदायित्व बोध है। प्रवचन के रूप में 'गीता-दर्शन' की व्याख्या मूलतः प्रबुद्ध-जागरूक बुद्धिजीवी साधकों की विशाल भीड़ के सामने प्रस्तुत की जाती है, प्रवचनकर्ता को संबंधित प्रश्नों के सामने खड़ा होना पड़ता है। एकांत में लिखी टीका और जन-समुदाय के सम्मुख किए गए प्रवचन में बहुत अंतर है। इसी अंतर से बोध सापेक्ष और उत्तरदायित्व बोध का जन्म होता है।
प्रवचन का स्फीति प्रधान शिल्प भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शन आदि के क्षेत्रों में एक सुपरिचित एवं स्वीकृत शिल्प है। गीता पर एक प्रवचन आचार्य विनोबा भावे का प्रसिद्ध है। इसमें पर्याप्त प्रवाह, पकड़ और प्रखरता है। धर्म-दर्शन पर स्वामी शरणानंद जी के प्रवचनों हिंदी भाषा की गरिमा और विचार - चिंतन की मौलिक गहराई स्वीकार करनी पड़ती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के भारतीय संस्कृति से संबंधित कुछ गंभीर प्रवचन उनके ललित निबंध-संकलन 'अशोक के फूल' में संकलित हैं। उन प्रवचनों और 'गीता-दर्शन' के प्रवचनों में एक मौलिक अंतर यह है कि वे निश्चित विषयों से संबंधित हैं और ये श्रोताओं के मनमाने अनिश्चित प्रश्नों पर आधारित हैं। किसी विषय के सामने खड़े वक्ता की दौड़ यदि एक निश्चित सीमा के भीतर सीधी दौड़ है तो प्रश्नों के सामने खड़े वक्ता की दौड़ अनिश्चित सीमा के भीतर 'बाधा दौड़' है जो बहुत अधिक वैचारिक ऊर्जा की मांग करती है। ऐसे ही ऊर्जावान हैं ओशो, आचार्य अथवा भगवान रजनीश के नाम से पूर्व विख्यात, परंपरागत विश्व-धर्म और दर्शन के आधुनिकतम वैज्ञानिक व्याख्याकार, वर्तमान विश्व के अन्यतम चिंतक - सर्जक महापुरुष और 'गीता-दर्शन' के हंसते खिलखिलाते प्रसन्न शिल्पकार !
वर्तमान दौर के लिए प्रवचन उपयुक्त संवाद - विधा है। बातचीत और भाषण के बीच यह मध्यम मार्ग है। आबादी की बाढ़ ने दुनिया को भीड़ बना दिया है और जिए जा रहे जीवन की दबाव - तनावग्रस्त जटिलता ने अकेले आदमी को भी भीड़ बना दिया है। ऐसी भीड़ लेखन - कार्य, ऐसा लगता है कि छूते-छूते रह जाता है। इस आंतरिक बाह्य भीड़ को छूना, समूह-मन को बांधना, उसे एकाग्र कर आत्म-साक्षात्कार तक पहुंचाना एक चुनौती है। इस कठिन चुनौती को देखते दिशा-निर्देशक के रूप में एक नाम उछलता है ओशो, अपने प्रवचनों के संदर्भ में नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले ।
ऐसे कृती की कृति 'गीता-दर्शन' में अवगाहन करने पर बारंबार मन में यह प्रश्न भी उठता है कि तर्क-बुद्धि को गहरे भावस्तर पर उतारकर व्यक्ति को अव्यक्ति बनाने वाली किस्से-कहानी के हल के वैयक्तिक स्पर्श से शुरू कर गहन से गहनतम निर्वैयक्तिक चिंतन - बिंदुओं का अंत में स्पर्श कराने वाली, श्रोताओं - पाठकों की वैचारिक परिधि को अचानक बहुत विस्तीर्ण कर देने वाली, दृष्टांतों- उदाहरणों आदि की ढेरी लगाकर विषयगत बोझिलता संपूर्ण रूप में अनुरंजन में ढाल कर संप्रेषित करने वाली, आवश्यकतानुसार व्यास-समास दोनों विश्लेषण पद्धतियों का सहारा लेकर तथा कृष्ण की गीता को केंद्र बनाकर ज्ञान-विज्ञान की विस्तीर्ण परिधि पर निर्बंध - स्वच्छंद दौड़ लगाने वाली, कसे हुए सूत्र, संतुलित परिभाषा, दो टूक निर्णय, नए क्रांतिकारी अर्थ आदि के साथ-साथ व्यंग्य - विनोद, किस्सागोई, तुलना, अंतर, प्रमाण, समीकरण - पृथक्करण, अन्वेषण, तर्क, कवित्व- कल्पना, समस्या, प्रश्न, समाधान, कसाव - बिखराव, बोध, सार्थक संदेश - निर्देश आदि तत्वों से संपन्न - संपृक्त ओशो की इस अत्यंत आकर्षक अभिव्यक्ति शैली को कौन सा नाम दिया जा सकता है?
साहित्य में ऐसी रम्य गद्य की एक विधा को हम आज ललित निबंध कहते हैं। समग्र रूप से ओशो की अभिव्यक्ति शैली इसी के अंतर्गत आएगी। लेकिन ओशो को हम ललित निबंधकार के रूप में नहीं जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व उनके साहित्यकार होने के प्रश्न पर हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में काफी बहस हो चुकी है। अब वह बहस लगभग ठंडी पड़ चुकी है। मेरी दृष्टि में वैसी बहस का उठना ही बेकार था। महान विचारक, चिंतक, दार्शनिक और आधुनिक तत्व द्रष्टा के रूप में उनका पद बहुत ऊंचा है। उन्होंने साहित्यकार के रूप में ललित निबंध नहीं लिखा है किंतु उनके ग्रंथों में शुद्ध ललित निबंध बिखरे पड़े हैं और भावकों को अनुरंजित - अनुप्राणित करते हैं। यदि इन्हें चयनित