Book Title: Gita Darshan Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 19
________________ 2 क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य ... 203 सभी कुछ परमात्मा है, तो शरीर और आत्मा, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह भेद और विलगाव क्यों है? / प्रतीत होता है-है नहीं / देखने में व्यक्तित्व का आरोपण / प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग व्याख्या / व्याख्या-शून्य होने पर ही सत्य का बोध संभव / हमारे अनुभव सापेक्ष हैं / सापेक्ष बुद्धि के लिए विपरीतता / परम प्रज्ञा में सब अद्वैत / सापेक्षता के कुछ प्रयोग / जब तक तुलना करने वाली बुद्धि-तब तक भेद / मिटना है-अभेद में उतरने की कला / गौर से देखें सब कुछ असीम है / वृक्ष, पृथ्वी, वायुमंडल, आकाश-सब जुड़े हुए / अस्तित्व में सभी कुछ अनादि और अनंत है / ध्यान है : बिना इंद्रियों के जीवन का अनुभव / शरीर और चेतना के भेद-ज्ञान से ही अद्वैत के बोध की क्षमता / समस्त धर्मों का एक ही लक्ष्य-क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान / विज्ञान द्वारा पदार्थ के परमाणु का विभाजन / धर्म द्वारा चेतना के परमाणु का विभाजन / चेतना के विस्फोट की ऊर्जा ही परमात्म-अनुभव / परमाणु विस्फोट से महाविनाश संभव / चेतना के विस्फोट से परम जीवन / व्यक्ति है पदार्थ और चैतन्य का जोड़ / एक ही सत्य-कहने के ढंग अनेक / गंतव्य एकः रास्ते अनेक / पंडितों का विवाद और यात्रा का स्थगन / महावीर और बुद्ध के कहने के ढंग बिलकुल विपरीत / आत्मा और अनात्मा / चलना विकास है, रुकना पतन है / तर्क का उपयोग–उपलब्धि की अभिव्यक्ति के लिए / असत्य को हटाने में तर्क का उपयोग / भारतीय शास्त्र अत्यंत तर्कयुक्त हैं / बुद्धि से हृदय पर उतरना / नृत्य और गीत हृदय के ज्यादा निकट / शरीर, इंद्रियां और इंद्रियों के विषय से मैं भिन्न हूं / धृति और चेतना से भी मैं भिन्न हं / निर्विषय चेतनता संभव नहीं-पश्चिमी मनोविज्ञान की मान्यता / विषय के अभाव में इंद्रियों का अभाव / चेतना के विषय खोते ही नींद का आ जाना / उत्तेजना में नींद का अभाव / बाह्य निर्भर चेतनता भी क्षेत्र है / विषय-बोध से भी तुम भिन्न हो / अज्ञान और ज्ञान-दोनों के पार हो तुम / संत फ्रांसिस के पास पशु-पक्षियों का आना-उसके प्रेम और शांति से खिंचकर / परम ज्ञान में ज्ञानी होने का बोध भी खो जाता है / पशु-पक्षियों को भी पता नहीं चलता-परम संत का / ज्ञेय और ज्ञाता-दोनों का खो जाना / मैं धृति अर्थात ध्यान भी नहीं हूं / उपयोग के बाद सीढ़ी और नाव को छोड़ देना जरूरी / ध्यान औषधि जैसी है / बीमारी से छूट जाने पर औषधि का त्याग जरूरी / सिद्धावस्था में पूजा-पाठ की जरूरत नहीं / सब पकड़ का छूट जाना / ध्यान, योग, साधना-सभी क्षेत्र हैं | जब तक विपरीत मौजूद है, तब तक विकार / प्रेम-घृणा, घृणा-प्रेम का खेल / जहां विपरीत नहीं, वहां पवित्रता, निर्दोषता, कुंवारापन / क्राइस्ट, कृष्ण और बुद्ध का प्रेम / विपरीत के अभाव में हमें मजा ही नहीं आएगा / ठंडा प्रेम / गरमी–विपरीत से, संघर्षण से आती है / नई चीजें सचेत व उत्तेजित रखती हैं / पुरानी चीजें उबाती हैं / पश्चिम में सेंस डिप्राइवेशन (इंद्रिय निरोध) के वैज्ञानिक प्रयोग / सुनना, देखना, स्पर्श, क्रिया-सब का अभाव / बहुत होशपूर्ण व्यक्ति भी छत्तीस घंटे में बेहोश / समस्त विषयों के, विकारों के, निर्भरता के पार है-परम चैतन्य क्षेत्रज्ञ। रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी ... 221 रामकृष्ण परमहंस समाधिस्थ होने पर मूर्छित-से क्यों हो जाते थे? / बाहर बेहोशी-भीतर होश / वस्तुगत और आत्मगत चेतना / चेतना की अंतर्लीनता / पश्चिम इससे अपरिचित है / हिस्टीरिया और रामकृष्ण की मूर्छा में भेद / रामकृष्ण लौटने पर परम शांत और परम आनंदित होते थे / लौट कर हिस्टीरिया का मरीज अधिक विकृत और पीड़ित / समाधि से पुनरुज्जीवित व ज्योतिर्मय होकर वापस लौटना / बेहोशी से दिव्यता पैदा नहीं होती / पश्चिमी मनोविज्ञान और संतों की मस्ती / जीसस को विक्षिप्त सिद्ध करने की कोशिशें / मैं ईश्वर का पुत्र है; मैं ब्रह्म है सृष्टि मैंने बनाई है-आदि घोषणाएं / पश्चिम का अधूरा मनोविज्ञान / पागल और संत का साम्य / असाधारण प्रतिभा के लोगों का पागल हो जाना / परिणाम कसौटी है / निराधार चेतना / बाह्य उत्तेजनाओं पर आधारित चेतना / गहरी नींद में भी होश का बना रहना / हमारी सतत घटती संवेदनशीलता / भीतर के अनाहत नाद में लीन रामकृष्ण / बुद्ध द्वारा भीतर-बाहर होश साधना / रामकृष्ण ने भीतर का साधा-बाहर का छोड़ दिया / रामकृष्ण का प्रयोग बद्ध के प्रयोग से सरल /

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