Book Title: Dhatupradip
Author(s): Srishchandra Chakravarti
Publisher: Varendra Research Society

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Page 34
________________ 24 धातुप्रदीपः / गर्ज शब्द / 223 / गर्जति / जगर्ज / गः / तर्ज भत्सने / 224 / तर्जति / ततर्ज / तर्जनी। कर्ज व्यथने / 225 / कर्जति। चकर्ज। कर्जः / खर्ज मार्जन च / / 226 / खर्जति / चखर्जः। खर्जनः। खजूरः / खर्जिपिञ्जादिभ्य रोलचौ (उण, 4 / 528) / कषिवमितनिधनिसर्जि. खर्जिभ्य जः ( उण, 181) / खजू: / अज गतिक्षेपणयोः / 227 / अजति / प्रवता प्राजिता (43) / प्रवयण प्राजनम् / समजः समाजः। व्याजः / वेवीयते इति यडि आर्धधातुकविषये वीभावः। संज्ञायां समजेत्यादिना (3 / 3 / 88) क्वप् / समज्या / पजिरशिशिरेत्यादिना (उण , 1153) किरच / अजिरं चत्वरम् / अजः / जातिलक्षणडोषि प्राप्ते टाप / प्रजा छागी। तेज पालने / 228 / तेजति / तेजः। / खज मन्थे च / 228 / खजति। खजः / खाजकः / खजाकः / खजाका। खजि गतिवैकल्ये / 230 / खञ्जति / चखञ्ज / खन्नः। खञ्जनः / ... एजृ कम्पने / 231 / एजति। एजाञ्चकार / मा भवानजिजत् / ' अङ्गमेजयः / ___टु ओ स्फूर्जा वचनि?ष / 232 / स्फूर्जति / स्फूर्जथुः / स्फुर्ग णः / स्मा गर्णमनेन (44) स्फूर्जितमनेन। दीर्घोकारस्योपदेश उपधायाचेत्य(८।२।७८) स्यानित्यत्वज्ञापनार्थइति / तेन मुर्छति हुच्छति स्फुच्छंतीत्यपि भवतीति केचित् / (43) अजर व्यघत्रपोरित्यव (23456) वलादावार्धधातुके वेति भाष्यम्। एतच्च तव ब्राह्मण सारथ्योविवादात् “एवं हि कश्चिद वैयाकरण आह कोऽस्य रथस्य प्रवेतेति / सूत आह अहमायुष्मन्नस्य रथस्य प्राजितेति। वैयाकरण आह अपशब्द इति। सूत आह प्राप्तिज्ञो देवानाम् प्रियः। न विष्टिजः। इष्यत एतद्रूपमिति / वैयाकरण आह अहो खलनेन दुरुतेन बाध्यामह इति। सूत आह न खलु वेञः सूतः / सुषतरेव सूतः / यदि सुक्तेः कुत्सा प्रयोक्तव्या दुःसूतेनेति वक्तव्यम् / इति ( महाभाष्य II. 4.56) (44) स्फुर्णमिति प्रामादिकम् / चोः कुरिति ( / 2 / 30) गकारलोपस्य शास्त्राभावात् !

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