Book Title: Dharmdoot 1950 Varsh 15 Ank 04
Author(s): Dharmrakshit Bhikshu Tripitakacharya
Publisher: Dharmalok Mahabodhi Sabha

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Page 3
________________ धर्म-दत चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुरसानं । देसेथ भिक्खवे धम्म आदिकल्याणं मझे कल्याण परियोसानकल्याणं मात्थं सव्यञ्जनं केवनपरिपुरणं परिसुद्धं ब्रह्मवरियं पकासेथ । महावग्ग, (विनय पिटक ) 'भिक्षुओ ! बहुजन के हित के लिये, बहुजन के सुख के लिए, लोकपर दया करने के लिये, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिये, हित के लिये, सुख के लिए विचरण करो। भिक्षुओ! आरम्भ, मध्य और अन्त-सभी अवस्था में कल्याणकारक धर्म का, उसके शब्दों और भावों सहित उपदेश करके, सर्वाश में परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो।' सम्पादक:-त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित वर्ष १५ सारनाथ, जुलाई बु० सं० २४९४ ई० सं०१२५० बुद्ध-वचनामृत __ शील के गुण "भिक्षुओ ! तीन प्रकार के सुखों को चाहनेवालों को चाहिए कि वे शील की रक्षा करें। कौन से तीन ? (१) मैं प्रशंसित होऊँ, (२) मुझे भोग-पदार्थ प्राप्त हों, (३) काया को छोड़ मरने के बाद सुगतिस्वर्ग-लोक में उत्पन्न होऊँ।" ( इतिवृत्तक ७६ ) ___ "चन्दन, तगर, कमल, या जूही-इन सभी की सुगन्धियों से शील की सुगन्ध बढ़कर है । यह जो तगर और चन्दन को गन्ध है । वह अल्पमात्र है । शीलवानों की उत्तम सुगन्ध देवताओं तक में फैलती है। दुःशील और चित्त की एकाग्रता से हीन व्यक्ति के सौ वर्ष के जीवन से शीलवान् और ध्यानी का" एक दिन का जीवन भी श्रेष्ठ है।" - (धम्मपद ४, १२) “सीलं किरेव कल्याणं सीलं लोके अनुत्तर ।” शील ही कल्याणकर है, लोक में शील सब से बढ़कर है। (जातक १,९) "जिस प्रकार विमल चन्द्रमा आकाश में जाते हुए सभी तारागण में प्रभा से अत्यन्त ही सुशोभित , होता है, उसी प्रकार श्रद्धावान् , शीलसम्पन्न मनुष्य संसार के सभी मत्सरियों में अपने त्याग से अत्यन्त ही । शोभता है।" (अंगुत्तर निकाय ५, ४, १) दुशा

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