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धर्मदूत
की भावनापूर्ण रूपेण ष्ट हो जाती हैं। इस तरह उन्होंने प्रत्येक चित्र में भावों की अभिव्यंजना में मस्त हो अपनी तूलिका चलायी । रंगों का तो उन्होंने इतना सुन्दर उपयोग किया है कि आज भी दर्शकों की पैनी आँखें उस चित्र की ओर से फिरने को नहीं करती । वास्तव में नोसु की चित्रकला दर्शकों के हृदय पर सहज रूप में भगवान् बुद्ध के प्रति प्रीति का जयघोष कर देती, ' जिसमें प्राय: उस अमर कलाकार की श्रद्धा की ध्वनि भी मिश्रित होने से वंचित नहीं रहती ।
रूसी विद्वान्, टॉलस्टाय लिखता है - "कला मान बीच चेष्टा है। चेष्टा वही है कि एक मानव ज्ञान पूर्वक कुछ संकेतों द्वारा उन भावों को प्रकट करता है, जिनका उसने अपने जीवन में साक्षात्कार किया है। इन भावनाओं का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है, वे भी उनकी अनुभूति करते हैं ।" वस्तुतः नोसु ने अपने जीवन में भगवान् बुद्ध के प्रति प्रीति की एक प्रबल प्रेरणा पायी और उसको हम सफल कलाकार इसलिये कहते हैं कि दर्शक भी उसकी उस कला सौष्टव में भगवान् बुद्ध के प्रति प्रीतिभावना से प्रेरित होते हैं। कलाकार की महानता को बतलाते हुए भारत के प्रसिद्ध कलाकार, श्री अवनेन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है--' कलाकार के मन का पता उसकी कला में चलता है। इसलिये हम कलाकार का आदर करते हैं । नहीं तो हिमालय पहाड़ को कई इच के चतु कोण फ्रेम में बाँधकर दीवार पर लटका रखने में मुझे क्या लाभ है ? हमें तो हिमालय के मन की बात की ही आवश्यकता है । कलाकार का तो यही काम है कि वह
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शताब्दियों का प्राचीन इतिहास हमारी आँखों के सामने नूतन रूप में रख देते हैं जो कला भौतिक उपकरणों से 1 जितनी अधिक स्वतन्त्र होकर भवों की अधिकाधिक अभिव्यंजना में समर्थ होंगी वह उतनी ही अधिक श्रेष्ट समझी जावेगी । इस पहलू से हमें नोसु की कला अत्यंधिक महान् जँचती है । कलाकार सिद्धार्थ के गृहत्याग का जब चित्र उपस्थित करता है, तो उस समय यशोधरा तथा पुत्र राहुल का निद्रा-मग्न अवस्था में त्यागने के अवसर पर मानव के अंतर हृदय में उठती हुयी सहज स्वाभाविक भावनाओं का इस तरह निरूपण किया है कि सिद्धार्थ के चित्र को देखते ही उनकी भावना प्रगट हो जाती है। इसी तरह आनन्द और अछूत कन्या का दृश्य जब हमारे सामने आता है तो उनकी मुद्रा से ही हम उनके हृदय के अंतरंग को जान जाते हैं । कला की सबसे बड़ी विशेषता है चिरन्तन सत्य की अभिव्यक्ति । अर्थात् प्रत्येक ललित कला की पृष्ठभूमि में प्रकृति की नकल रहती है। इसी तरह चित्र-कळा की सफलता चित्र के बाह्यालंकारों पर नहीं वरन् उसकी स्वाभाविकता पर निर्भर करती है। यहाँ दो तरह के कलाकार को देखिये जो किसी रमणी के चित्र बनाने में उस पर आभूषण के सुनहले रंग चढ़ा कर अपने को कलाकार में आँकते हैं और दूसरे तरह के वे हैं जो रमणी के सहज स्वाभाविक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करते हैं। प्रथम श्रेणी के कलाकार से ऊपर लिखित सिद्धान्त की पुष्टि नहीं हो पाती। वे रंग चढ़ाने में ही अपना उद्देश्य भूल जाते हैं। अत: उसमें वह कृत्रिम सौन्दर्य, सौन्दर्य की श्रेणी से नीचे उतर आता है। पर दूसरो श्रेणी
के कलाकार से चित्र की स्वाभाविक सुन्दरता, प्रचुर मात्रा 蒜 सुन्दर ही प्रतीत होती । हमारे नोसु भी द्वितीय श्रेणी के चित्रकार हैं। उन्होंने कला के कर्म को ठीक-ठीक समझा, या यों कह सकते हैं कि वे एक सफल कलाकार हैं। उनकी चित्रकारी में हमें विशिष्ट अहंकार तो नहीं मिलते पर भावों की अभिव्यंजना तो प्रचुर रूप में मिलती ही है। उनके प्रायः प्रत्येक चित्र भावों से ओत-प्रोत हैं। "सुजाता की खीर" शीर्षक चित्र में भगवान् बुद्ध का शुष्क शरीर तथा सुजाता की खीर समर्पण का भाव उन्होंने इस रूप में दर्शाया है कि सुजाता की समर्पण
अपने मन से पार्थिव वस्तु के मन की बात को समझे और
इस बात को हमारे मन में अंकित कर दे ।" इस कथन
की पुष्टि हमें श्री नोसु की चित्रकला में मिलती है । वह भगवान् बुद्ध के जीवन के प्रत्येक घटना को हमारे मन में सत्य के परे नहीं अंकित किया। सत्यता की जिस रूपरेखा पर उसने भगवान् बुद्ध के जीवन को चित्रों में अंकित किया वह किसी भी कला मर्मज्ञ के लिए श्रेय एवं प्रेय हो सकता । वस्तुतः उन चित्रों को देखने से नोसु को कलाकार होने के पहले एक सच्चे बौद्ध होने की
( शेषांश १०४ पृष्ठ पर )