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धर्मदूत
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धर्मराज्य के अपराधियों को जला डालना, खत्म कर देना, निर्वासित कर देना, दश डालना और उन्हें दूर भगा देना ही सजाये हैं । धर्मराज्य के अपराधी हैं क्रोध, मान, लोभ, द्वेष, मोह, दाह, मात्सर्य आदि अकुशत धर्म | इनके त्याग के लिये तथागत जामिन भी होते थे और कहते थे कि इन्हें त्यागी, मैं तुम्हारी मुक्ति के लिये जामिन होता हूँ, किन्तु परम दयालु तथागत इन अप राधियों के साथ भिड़ने में, संग्राम करने में, उन्हें जला डालने में दया करने को अवकाश नहीं देते थे किंतु अब ये अपराधी दूसरे को पीड़ित करते थे और उन्हें पराजित करके उनके सहयोग से आ जुटते थे तब तथागत सहनशीलता का उपदेश देते थे और कहते थे "सहको, सह लेना परम तप है।" "भिक्षुओ ! चोर लुटेरे चाहे दोनों ओर मुडिया लगे आरे से भी अंग अंग को चीरें तो भी यदि वह मन को दूषित करे तो वह मेरा शासन कर नहीं है । वहाँ पर भी भिक्षुओ ! ऐसा सीखना चाहिए -- मैं अपने चित्त को मैत्री से लावित कर विहरूँगा ।"
धर्मराज तथागत अपने धर्मराज्य के कर्तव्यों को बतलाते हुए कहा करते थे--" भिक्षुओं! यह ब्रह्मचर्य लाभ, सत्कार, प्रशंसा, पाने के लिये नहीं है । शील-सम्पत्ति के I लाभ के लिए नहीं है, न समाधि-सम्पत्ति के लाभ के लिये है, न ज्ञान-दर्शन के लाभ के लिये है। भिक्षुओ ! जो यह नत होनेवाली चिरा की मुक्ति है, इसी के लिये यह ब्रह्मचर्य है । यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है ।" "भिक्षुओ ! मैं बेड़े की भाँति पार जाने के लिये तुम्हें धर्म का उपदेश देता हूँ, पकड़कर रखने के लिये नहीं ।" "एकत्रित होने पर भिक्षुओ ! तुम्हारे लिये दो ही कर्तव्य हैं- (१) धार्मिक कथा या (२) आर्य तूष्णी-भावं ( उत्तम मौन ) ।”
तथागत के धर्मराज्य में सभी लोग समान थे, किसी प्रकार का सामाजिक या धार्मिक भेदभाव नहीं था। जिस प्रकार छोटी-बड़ी सभी नदियों समुद्र में मिलकर समान जलवाली हो जाती हैं, उनका नाम, गोत्र लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार वधागत के धर्मराज्य में प्रवेश पाते ही सब अपने नाम, गोत्र, वंश, कुछ की मर्यादा को त्याग कर एक समान हो जाते थे । धर्मराज्य के नागरिक
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चार भागों में विभक्त थे (1) भिक्षु (२) भिक्षुणी, (२) उपासक और (४) उपासिका उनकी साम के अनु सार तथागत का सब के लिए अनुशासन था। गुदस्थ और प्रग्राजियों की भी सीमाबन्दी थी। प्रमजियों को गृहस्थों के प्रगाढ़ संसर्ग से दूर रहने की आज्ञा थी । तथागत सदा ध्यान रखते थे कि प्रजित गृहस्थों में मिल-जुलकर कहीं अपने उद्देश्य को न भूल जायें और उन्हें 'मार' अपने वश में कर ले।
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तथागत प्रयजितों को अपने समान ही रहने की शिक्षा देते थे। जिन कार्यों को करने में उन्हें स्वयं सुख की अनुभूति होती थी, उसे वे भिक्षुओं को भी करने के लिये आज्ञा देते थे । तथागत ने जय एकाहारी व्रत ग्रहण किया और देखा कि उसी में सुख है तो भिक्षुओं को भी कड़ा भिक्षुभो ! एक आसन भोजन का सेवन करता हूँ । एक आसन भोजन का सेवन करने से मैं अपने में निरोगिता, स्फूर्ति, वह और सुख का अनुभव करता हूँ। आओ भिक्षुओ ! तुम भी एक आसन-भोजन को सेवन करो। एक आसन भोजन करने से तुम भी निरोगिता स्फूर्ति, बल और सुख का अनुभव करोगे ।” तथागत के धर्मराज्य में कभी भी किसी प्रकार के बल का प्रयोग नहीं किया जाता था और न तो तथागत अपनी बातों को बिना सोचे-समझे ग्रहण कर लेने को ही कहते थे, उनका उपदेश था कि "मेरी किसी भी बात को ग्रहण करने से पूर्व उसे बुद्धि की कसौटी पर खूब कस हो, यदि वह तुम्हें ऊँचे तो ग्रहण करो और यदि न अँचे तो स्वाग दो ।" धर्म राज्य में बुद्धि की पूरी स्वतन्त्रता थी । सब लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार विचार-विमर्ष करने के लिये स्वतन्त्र थे । तथागत ने उन्हें 'महापदेश' की अनुपम कसौटी सौंप दी थी, जिससे वे अपने बुद्धि-स्वातन्त्र्य का प्रयोग भली प्रकार कर सकते थे।
तथागत के धर्मराज्य के धर्म सेनापति आयुष्मान् सारिपुत्र थे । वे तथागत द्वारा प्रवर्तित 'धर्मचक्र' को अनुप्रवर्तन करते थे जो अनन्तज्ञानी, सांसारिक वस्तुओं में नहीं फँसनेवाले, अतुल्यगुण, यश, बल, तेजवाले थे और जिन्होंने प्रज्ञाकी सीमा पा ली थी। ऋद्धिमान् भिक्षु धर्म
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