Book Title: Dharmdoot 1950 Varsh 15 Ank 04
Author(s): Dharmrakshit Bhikshu Tripitakacharya
Publisher: Dharmalok Mahabodhi Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ९९ बुद्ध का कर्मवाद तो यह लोक है और न परलोक । माता-पिता का अस्तित्व नहीं, जो हममें चेतना जान पड़ती हैं, वह सिर्फ विभिन्न स्वीकार करना अपने को दूसरों के हाथ बाजाप्ता बेंच देना परिणाम में मिश्रित रसों के कारण सम्भूत है. ऐसे ही है। संसार में अयोनिज सत्व अथवा देवता आदि नहीं उष्णता भी। उनके न्यूनाधिक होने मात्र से व्यक्ति काल हैं। हमें किसी श्रमण-ब्राह्मण की सत्यारूदता में विश्वास कर जाता है। नहीं। यह चार महाभूतों (= पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) यदि इसे मान लिया जाय, तो न हमें अपने जीवन से से बने शरीर वाला व्यक्ति जब मरता है तब पृथ्वी पृथ्वी कोई ताल्लुक रह जाता है और न उद्योग करने की आव. में मिल जाती है। जल जल में मिल जाता है। अग्नि श्यकता रहती है। जैसे कुक्कुर-बिलार खाते-पीते, जीते अग्नि में लय हो जाता है। वायु वायु में चला जाता है। और मर जाते हैं, वैसे हमारी हस्ती भी निकम्मी बन इन्द्रियाँ आसमान में उड़ जाती हैं। मरने के बाद कौन जाती है। किसी को भी किसी ऊँचे आदर्श के लिए आता है और कौन जाता है ?? प्रोत्साहन देना फिजूल हो जाता है। लोक, समाज, देश दान, यज्ञ, हवन आदि कर्मों के विपाकों को देखते और व्यक्तिगत हित-साधक कर्म हमसे दूर हो रहते हैं। हये यह कैसे स्वीकार किया जाय कि सब व्यर्थ है ? दान अपने भले बुरे कर्मों का दायित्व नहीं रहता।* की बात तो छोड़ो, एक न्यायधीश को कुछ भेंट चढ़ाकर चौथा दार्शनिक कहता है-'प्राणियों के संक्लेश के न्याय के ऊपर अन्याय की विजय करा लेते हैं। दुश्मन के लिये कोई हेतु नहीं है, बिना किसी कारण के प्राणी को धन, सम्पत्ति, राज्य आदि अपनी चीजें देकर सन्धि संक्लेशित होते हैं, ऐसे ही विशुद्धि के लि कर सखपूर्वक विचरने लगते हैं। भूखों मरते व्यक्ति के का अभाव है। सभी भवितव्यता के वशीभूत हैं। प्राण को भी भोजन दान से बचा लेते हैं। इस धरती पर हम देखते हैं कि सिर्फ एक दिन के नहीं खाने से के सभी प्रदेश, नदी, नाले, गिरि, सागर को देखते हुए शरीर कुछ दुबला पड़ जाता है और घी, दही, दूध आदि कैसे इस लोक को न माने ? धरती से दूर चन्द्रमा, सूर्य ओजपूर्ण भोजन के सेवन से शीघ्र ही गात्र स्थूल और आदि को अपनी आँखों देखते हुये कैसे परलोक के अस्ति- बलवान हो जाते हैं। व्यक्ति की पैदाइश भी तो मातात्व से मुकर जायें ? नित्य प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति पिता. शुक्रशोणित और गन्धर्व (= माता के पेट में प्रति. इहलोक तथा परलोक को मानने के लिये बाध्य करती है। सन्धि प्रहण करने वाली चित्त-सन्तति) के संयोग पर एक भले आदमी की प्रशंसा होती है। कीर्ति फैलती ही निर्भर है, फिर कैसे माना जाय कि प्राणियों के कर्महै। अच्छे कर्मों के फलस्वरूप उसे इस धरती पर राजा. कलाप हेतु-प्रत्यय रहित हैं और बिना किसी हेतु के उनकी राजमन्त्री वगैरह होते हुये देखते हैं और ठीक इसके शुद्धि अथवा संक्लेशिता सम्भव है ? नाना प्रकार के विपरीत अपने बुरे कर्मों के कारण फाँसी की सजा पाते, कुशल-अकुशल कर्मों के द्वारा अच्छे बुरे फलों की प्राप्ति के कैदखाने का चक्कर काटते और शूट कर दिये जाते । फिर बावजूद भी अहेतुकवाद कहाँ तक ठीक ठहरता है। कैसे अच्छे बुरे कर्मों के फल को न माना जाय ? माता-, पाँचवाँ दार्शनिक कहता है-'व्यक्ति पुण्य करे अथवा पिता का अस्तित्व स्वीकार न करना अपने को पशु से भी पाप. वह चौरासी हजार महाकल्पों तक उन-उन योनियों नीच बना देना है। बिना योनि से उत्पन्न लाखों भूत-प्रेत में दौडते रहने के पश्चात् ही निर्वाण पायेगा। आत्मा देखे जाते हैं। यदि सूर्य चन्द्रमा आदि को देव न माने नित्यध्रव. शाश्वत. अपरिवर्तनशील और कूटस्थायी है,सुखतो भी काली, हवहिया, बाइसी, दुर्गा, शीतला, भैरव आदि-देवी देवताओं के कृत्य देखते हुए कैसे हम इनका *मिलाओ अंगुत्तर निकाय ३, ४, ५ और संयुत्त निषेध करें? निकाय ३, २३, १,६। _ 'शरीर केवल चार महाभूतों से निर्मित है, जब तक मिलाओ संयुत्त निकाय ३, २३, १, ९ और दीघ शरीर है तब तक ही जीवन है. उसके आगे फिर कुछ निकाय १,१।

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28