Book Title: Dharmamrut Anagar Author(s): Ashadhar Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ प्रधान सम्पादकीय मिलती है । सच तो यह है कि आत्मज्ञानके बिना बाह्य साधनों की कोई उपयोगिता नहीं है । आत्मरति होनेपर शारीरिक कष्टका अनुभव ही नहीं होता । वस्तुतः इस देश में प्रवृत्ति और निवृत्तिकी दो परम्पराएँ अतिप्राचीन कालसे ही प्रचलित रही हैं । ऋग्वेदके दशम मण्डलके १३५वें सूक्तके कर्ता सात वातरशना मुनि थे । वातरशनाका वही अर्थ है जो दिगम्बरका है। वायु जिनकी मेखला है अथवा दिशाएं जिनका वस्त्र है, दोनों शब्द एक ही भावके सूचक है। भगवान् ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थंकर थे । जैन कलामें उनका अंकन घोर तपश्चर्याके रूपमें मिलता है । इनका चरित श्रीमद्भागवत में भी विस्तारसे आता है । सिन्धुघाटी से भी दो नग्न मूर्तियाँ मिली हैं । इनमें से एक कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित पुरुषमूर्ति है। इसकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्राके आधारपर कतिपय विद्वान् इसे ऐसी मूर्ति मानते हैं जिसका सम्बन्ध किसी जैन तीर्थंकरसे होना चाहिए। जैन अनगारका भी यही रूप होता है। उसीके आचारका वर्णन इस अनगार धर्मामृतमें है। इससे पूर्व अनगार धर्मका वर्णन प्राकृतके मूलाचार ग्रन्थ में भी है किन्तु संस्कृतमें यह इस विषयकी प्रथम प्रामाणिक कृति है । पं. आशाधर साधु नहीं थे, गृहस्थ थे । पर थे बहुश्रुत विद्वान् । उनकी टीकाओं में सैकड़ों ग्रन्थोंसे प्रमाण रूपसे उद्धृत पथ हजारसे भी अधिक हैं। इस संस्करण में केवल 'अनगार धर्मामृत' ज्ञानदीपिका पंजिका सहित सानुवाद दिया गया है। विशेषार्थमें भव्पकुमुदचन्द्रिका नामक टीकाका हिन्दी सार भी समाहित कर लिया गया है, मूल टीका नहीं दी गयी है क्योंकि वह अन्यत्र कई स्थानोंसे प्रकाशित हो चुकी है । फिर इस ज्ञानदीपिका पंजिकाको प्रकाशमें लाना ही इस संस्करणका मुख्य उद्देश्य है । 'सागार धर्मामृत' दूसरे भाग में प्रकाशित होगा । उसका मुद्रणकार्य चालू है । साहू शान्तिप्रसादजीने भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना करके मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राचीन प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़ जैन साहित्यके प्रकाशन द्वारा जैन वाड्मयके उद्धारका जो सत्कार्य किया है उसके लिए प्राचीन वाङ्मयके प्रेमी सदा उनके कृतज्ञ रहेंगे । ज्ञानपीठको अध्यक्षा श्रीमती रमारानीके स्वर्गवास हो जानेसे एक बहुत बड़ी क्षति पहुँची है। किन्तु साहूजीने उनके इस भारको भी वहन करके ज्ञानपीठकी उस क्षतिको पूर्ति की है यह प्रसन्नताकी बात है । ज्ञानपीठके मन्त्री बा. लक्ष्मीचन्द्रजी इस अवस्थामें भी उसी लगनसे ज्ञानपीठके प्रकाशन कार्यको बराबर प्रगति दे रहे हैं। डॉ. गुलाबचन्द्रजी भी इस दिशा में जागरुक हैं। उक्त सभी के प्रति हम अपना आभार प्रदर्शन करते हुए अपने सहयोगी स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्येको अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only - कैलाशचन्द्र शास्त्री - ज्योतिप्रसाद जैन www.jainelibrary.orgPage Navigation
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