________________
प्रधान सम्पादकीय
दिगम्बर जैन परम्पराके साधुवर्ग और श्रावक वर्गमें जिस आचार धर्मका पालन किया जाता है उसके लिए आचार्यकल्प पं. आशाधरका धर्मामृत एक विद्वत्तापूर्ण कृति है। विद्वान् ग्रन्थकारने प्रकृत विषयसे सम्बद्ध पूर्ववर्ती साहित्यका गम्भीरतासे अध्ययन किया था। उन्होंने अपने इस ग्रन्थमें उसको बहुत ही प्रामाणिक और सुव्यवस्थित रीतिसे उपस्थित किया है। यह ग्रन्थ दो भागोंमें विभाजित है-प्रथम भागका नाम 'अनगार धर्मामृत' है और दूसरे भागका नाम 'सागार धर्मामृत' । ग्रन्थकारने स्वयं ही अपने इस ग्रन्थपर संस्कृतमें ही एक टीका और एक पंजिका रची थीं। टीकाका नाम 'भव्यकूमदचन्द्रिका' और पंजिकाका नाम 'ज्ञानदीपिका' है। टीका और पंजिका दोनोंकी एक विशेषता यह है कि ये केवल श्लोकोंकी व्याख्यामात्र नहीं करतीं, अपितु उनमें आगत विषयोंको विशेष रूपसे स्पष्ट करने के लिए और उससे सम्बद्ध अन्य आवश्यक जानकारी देने के लिए ग्रन्थान्तरोंसे भी उद्धरण देते हुए उसपर समुचित प्रकाश भी डालती हैं। इस तरह मूलग्रन्थसे भी अधिक उसकी इन टीकाओंका महत्त्व है।
भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकाके साथ अनगार धर्मामत और सागार धर्मामतका प्रकाशन श्री माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बईसे हुआ है। किन्तु ज्ञानदीपिका एक तरहसे अनुपलब्ध थी । भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके विद्वान् सम्पादक डॉ. ए. एन. उपाध्ये उसकी खोजमें थे और वह प्राप्त हो गयी। उन्होंने ही सन् १९६३ में यह योजना रखी कि भारतीय ज्ञानपीठसे धर्मामतका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित हो जिसमें(१) धर्मामृत के दोनों भाग एक ही जिल्दमें हों, क्योंकि तबतक दोनों भाग पृथक्-पृथक् ही प्रकाशित हुए थे। (२) संस्कृत मूल ग्रन्थ शुद्ध और प्रामाणिक पाठके रूपमें दिया जाये। यदि कुछ प्राचीन प्रतियाँ उपलब्ध हो
सकें तो उनका उपयोग किया जाये । (३) प्रथम, श्लोकका शब्दशः अनुवाद रहे । उसके पश्चात् विशेषार्थ रहे जिसमें संस्कृत टीकामें चचित विषयों
को व्यवस्थित रीतिसे संक्षेपमें दिया जाये। साथ ही, जहाँ आशाधरका अपने पूर्व ग्रन्थकारोंके साथ
मतभेद हो वहाँ उसे स्पष्ट किया जाये । विशेष अध्येताओंके लिए उसमें आवश्यक सूचनाएँ भी रहें। (४) यदि ज्ञानदोपिकाकी पूर्ण प्रति प्राप्त हो तो उसे परिशिष्टके रूपमें दिया जाये।
सारांश यह कि संस्करण सम्पूर्ण जैनाचारको जानने के लिए अधिकाधिक उपयोगी हो, आदि ।
डॉ. उपाध्येकी इसी योजनाके अनुसार धर्मामृतका यह संस्करण प्रकाशित हो रहा है। किन्तु हमें
कि हम धर्मामृतके दोनों भागोंको एक जिल्दके रूपमें प्रकाशित नहीं कर सके, क्योंकि ग्रन्थका कलेवर अधिक बृहत्काय हो जाता। अतः हमें भी उसे दो भागोंमें ही प्रकाशित करना पड़ा है। प्रथम भाग अनगार धर्मामृत है।
पं. आशाधरने गृहत्यागी साधुके लिए अनगार और गृहस्थ धावकके लिए सागार शब्दका प्रयोग किया है । ये दोनों शब्द पूर्वाचार्य सम्मत हैं । आगम ग्रन्थोंमें जैन साधुके लिए अणगार शब्द प्रयुक्त हुआ है। तत्त्वार्थसूत्रमें व्रतीके दो भेद किये हैं-अगारी और अनगार ( अगार्यनगारश्न ७१९३)। जो गृहवास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org