Book Title: Chitt aur Man
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 352
________________ ३३६ तुमसि नाम सच्चेव जं परिघेतव्वं ति मन्नसि । जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है । तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्यं ति मन्नसि । जिसे तू मारने योग्य मानता है वह तू ही है । यह परम सत्य की अनुभूति अनेकान्त के आधार पर हुई है । अनेकांत को वही स्वीकार कर सकता है जो राग-द्वेष से विमुक्त है । जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की प्रचुरता है वह अनेकान्त को कभी स्वीकार नहीं कर सकता वास्तव में अनेकान्त ध्यान का दर्शन है, साधना का दर्शन है । जिस व्यक्ति की चेतना निर्मल होती है, राग-द्वेष से विमुक्त होती है उसमें अनेकान्त की दृष्टि जागती है, सत्य की प्रज्ञा जागती है, अन्यथा नहीं । प्रज्ञा का जागरण चित्त और मन हमारे भीतर प्रज्ञा है । उसको कैसे जगाया जाए, यह सोचना है । उसको जगाने के जो सूत्र हैं, वे जीवन विज्ञान के सूत्र हैं । हमारी प्रज्ञा तब जागती है, जब आलस्य, प्रमाद और मूर्च्छा का वलय टूटता है । वाल्मीकी एक क्षण में डाकू से ऋषि बन गया, यह बुद्धि या चिन्तन के स्तर होने वाली घटना नहीं थी । उसकी प्रज्ञा जागी, अन्तःकरण में स्फुरणा जागी और वह डाकू से महर्षि बन गया । उसमें एक ही क्षण लगा, दो नहीं । यह द्रुत संचरण है, छलांग है । यह छलांग चिन्तन से परे प्रज्ञा की देन है । इसीलिए आकस्मिक ढंग से अनहोना होना हो जाता है । यह सब भीतर का क्षेप है । मूर्च्छा टूटती है तब अप्रमाद जागता है । जब अप्रमाद जागता है तब भय समाप्त हो जाता है । भगवान् का सूत्र है - 'सव्वओ पमत्तस्स भयं ।' 'सव्वओ अप्रमत्तस्स णत्थि भयं ।' प्रमादी को भय होता है । अप्रमादी भयमुक्त होता है। जहां प्रमाद है वहां भय है | जहां अप्रमाद है वहां अभय है । मूर्च्छा टूटी, अप्रमाद आया और अभय घटित हुआ । शरीर की क्षमता मनुष्य का शरीर अनेक रहस्यों से जुड़ा हुआ है । शरीर के कुछ भाग ज्ञान और संवेदन के साधन बने हुए हैं । वे भाग 'करण' कहलाते हैं । एक 'करण' है । उसके माध्यम से रूप को जाना जा सकता है किन्तु मनुष्य के पूरे शरीर में 'करण' बनने की क्षमता है । यदि संकल्प के विशेष प्रयोगों के द्वारा पूरे शरीर को 'करण' किया जा सके तो कपोलों से भी देखा जा सकता है, हाथ और पैर की अंगुलियों से भी देखा जा सकता है । यह इन्द्रिय चेतना का ही विकास है । इसे अतीन्द्रिय चेतना का विकास नहीं कहा जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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