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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
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५. निश्न्त्रयनय ६ ऋजुसूत्रनय, ७ शब्दनय, ६. एवंभूतनय, १०. पर्यायार्थिकनय ।
ऐसा क्रम रखने के पीछे क्या कारण हो सकता है - इसका विचार करें तो ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार ने 'स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर' इस सिद्धान्त का पालन करते हुए यह क्रम रखा है। इस. संबंध में नय प्रकरण के अन्त में वे स्वयं लिखते हैं :
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समभिनय,
"इन नयन (नयों) में पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषय उत्तर-उत्तर सूक्ष्मारूपरूप अनुकूल विषय कहिये ।" 1
नयप्रकरण की उनकी मौलिक विशेषताओं को निम्न बिन्दुनों से स्पष्टतः समझ सकते हैं :
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(१) सर्वत्र संगमनय के बाद संग्रहनय का निरूपण किया जाता है; जबकि ग्रन्थकार ने पहले संग्रहनय का, बाद में नैगमनय. का निरूपण किया है।
(२) नैगमनय के भेद - प्रभेद भी विचित्रता सहित हैं, जो कि मूलतः पठनीय हैं |
( ३ ) सर्वत्र द्रव्याधिन के दश भेदों का निरूपण जीव को मुख्यता से किया जाता है, जबकि इस ग्रन्थ में उन्हें पुद्गल की मुख्यता से निरूपित किया है ।
( ४ ) ग्रन्थकार ने निश्चय व्यवहारवाले व्यवहारनय एवं नैगमादि नयों में आनेवाले व्यवहारनय दोनों का सम्मिलित निरूपण किया है। साथ ही व्यवहारनय का निरूपण अनेक उदाहरणों के माध्यम से किया है ।
1. इसी पुस्तक में पृष्ठ ७१ पर इसका अनुवादित अंश देखें |
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