Book Title: Charnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ६४. प्र०-पापोपदेश किसे कहते हैं ? उ०-व्यक्तिगत या सामूहिक चर्चा वार्तामें मनुष्यों और पशुओंको क्लेश देनेवाले व्यापारका उपदेश देना, हिंसा और ठगीके उपाय बतलाना पापोपदेश है। ६५. प्र.-हिंसादान किसे कहते हैं ? उ०-जिन चीजोंसे दूसरोंकी हिंसा की जा सकती है ऐसी वस्तुएँ दूसरोंको देना हिंसादान नामका अनर्थदण्ड है। ६६. प्र०-अपध्यान किसे कहते हैं? उ०-दूसरोंका बुरा विचारना अपध्यान नामका अनर्थदण्ड है। ६७. प्र०-दुःश्रुति किसे कहते हैं ? उ०-चित्तको कलुषित करने वाले कामशास्त्र, हिंसाशास्त्र आदिको पढ़ना या सुनना दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है । ६८. प्र०-प्रमादचर्या किसे कहते हैं ? उ०-बिना जरूरत पृथ्वी खोदना, वृक्ष काटना, पानी बहाना, इधरउधर घूमना प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। ६९. प्र०-भोगोपभोग-परिमाणवत किसे कहते हैं ? उ०-रागभावको कम करनेके लिये आवश्यक भोग और उपभोगका यम अथवा नियम रूपसे परिमाण करना कि मैं इतने समय तकके लिये इतने भोग और उपभोगका सेवन करूँगा, इससे अधिकका नहीं, इसे भोगोपभोग परिमाणवत कहते हैं। ७०. प्र०-भोग किसे कहते हैं ? उ०-इन्द्रियोंका जो विषय एक बार भोगनेके बाद पुनः नहीं भोगा जा सकता उसे भोग कहते हैं जैसे भोजन । ७१. प्र.-उपभोग किसे कहते हैं ? उ०-जिस विषयको बार-बार भोगा जा सकता है उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र। ७२. प्र०-यम और नियम किसे कहते हैं ? उ०-जीवन पर्यन्तके लिये त्याग करनेको यम कहते हैं और नियमित काल तकके लिये त्याग करनेको नियम कहते हैं। ७३. प्र.-भोगोपभोग-परिमाणन्नतीको क्या-क्या सेवन नहीं करना चाहिये? उ०-भोग-उपभोगोंको कम कर देनेसे धनकी चाह कम हो जाना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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