Book Title: Charnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 28
________________ २१ चरणानुयोग-प्रवेशिका आदि उठाते-धरते समय मृदु वस्त्र आदिसे जोवोंकी विराधनाको बचाने और प्रत्येक मासको दो अष्टमी और दो चतुर्दशीको उपवास अवश्य करे । १५१. प्र०-क्षुल्लककी भिक्षाको क्या विधि है ? उ०-क्षल्लक भी दो प्रकारके होते हैं-एक भिक्षा नियमवाले और अनेक भिक्षा नियमवाले । अनेक भिक्षा नियमवाला क्षुल्लक अपने हाथमें पात्र लेकर भिक्षाके लिए निकले और श्रावकके घर जाकर 'धर्मलाभ' कहकर भिक्षाकी याचना करे अथवा मौनपूर्वक श्रावकके आँगन में खड़ा होकर चला आवे और दूसरे घर जावे। इस तरह भिक्षा माँगते समय यदि बीच में कोई श्रावक अपने घरपर भोजन करनेकी प्रार्थना करे तो पहले भिक्षामें प्राप्त भोजनको शोधकर खाने के बाद यदि आवश्यकता हो तो उससे ले ले। यदि कोई बीच में न टोके तो उदरपूर्ति के लिए आवश्यक भिक्षा प्राप्त होनेतक भिक्षाके लिए श्रावकोंके घर जावे और फिर जहाँ प्रासुक जल मिले वहीं शोधकर भोजन कर ले। भोजन कर चुकनेपर भिक्षापात्रको स्वयं ही माँज धोकर साफ करे । फिर गुरुके पास जाकर दूसरे दिन आहारको निकलनेतकके लिए चारों प्रकारके आहारका त्याग करे तथा आहारके लिए जाने के समयसे लेकर वापिस आनेतक जो कुछ प्रमाद हुआ हो उसकी गुरुके सामने आलोचना करे। जिनके घरके भोजनका नियम है वे मुनिराजके भोजनके पश्चात् श्रावकके घर जाकर भोजन करें और यदि भोजन न मिले तो जरूर ही उपवास करें। १५२. प्र०-दूसरे ऐलकका क्या स्वरूप है ? उ०-ऐलक केवल लंगोटी ही रखता है, खण्डवस्त्र नहीं रखता। केश लोंच करता है और मुनियोंके समान पीछी कमंडल आदि उपकरण रखता है तथा मुनियोंके समान ही अपने हाथरूपी पात्रमें श्रावकोंके द्वारा दिये हुए भोजनको शोधकर खाता है। शेष क्रियाएँ क्षुल्लकके हो समान हैं। १५३. प्र०-उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमें जघन्य आदि भेद किस प्रकार हैं? उ०-पहले छै प्रतिमाधारी श्रावक जघन्य श्रावक हैं और गृहस्थ कहलाते हैं, सात, आठ और नौवीं प्रतिमा धारक श्रावक मध्यम श्रावक हैं और वर्णी या ब्रह्मचारी कहलाते हैं तथा दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक उत्कृष्ट श्रावक हैं और भिक्षु कहे जाते हैं। ये सब परस्पर में मिलनेपर एक दूसरेसे 'इच्छाकार' कहकर अभिवादन करते हैं । १५४. प्र०- देशविरती श्रावकोंके लिए कौन-कौन कार्य निषिद्ध हैं ? उ०-दिनमें प्रतिमायोग धारण करना ( नग्न होकर कार्योत्सगं करना), वोरचर्या (मूनिके समान गोचरी करना), त्रिकालयोग (गर्मी में पर्वतके शिखरपर, बरसातमें कक्षमें नीचे और सर्दी में नदी किनारे ध्यान करना), Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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