Book Title: Charnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 74
________________ ६७ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५४२. प्र०-उत्पीड़कत्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-व्रत वगैरहके छिपे हुए अतिचारोंको बाहर निकालनेको सामर्थ्य होना उत्पीड़कत्व गुण है। ५४३. प्र०-अपरिस्रावित्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-अपनी आलोचना करते हुए क्षपकने एकान्तमें यदि अपने कुछ गुप्त दोष कहे हों तो उनको प्रकट न करना अपरिस्रावित्व गुण है। ५४४. प्र०-सुखावहत्त्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-कानोंको सुख देनेवाली मनोहरवाणीके द्वारा समाधिमरण करने वालेको पीडाको कम करने में कुशल होना सुखावहत्व गुण है। ५४५. प्र०-स्थितिकल्प कौनसे हैं ? उ०-आचेलक्य, औद्देशिकपिण्ड त्याग, शय्याधरपिण्ड त्याग, राजकीय पिण्ड त्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मोसैकवासिता और पर्युषण ये दस स्थिति कल्प हैं। ५४६. ३०-आचेलक्य स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-वस्त्र आदि परिग्रहको छोड़कर नग्न रहना आचेलक्य स्थिति कल्प है। ५४७. प्र.-औद्देशिक पिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-श्रमणोंके उद्देश्य से बनाये गये भोजन वगैरहको औद्देशिक कहते हैं । औद्देशिकपिण्डका त्याग करना दूसरा स्थितिकल्प है। ५४८. प्र०-शय्याधरपिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-जो वसति बनाता है, या दूसरे द्वारा बनवायी हुई वसतिका जीर्णोद्धार कराता है अथवा जो न तो वसति बनाता है और न जीर्णोद्धार कराता है किन्तु केवल बसति देता है उन तीनोंको शय्याधर कहते हैं। उनके आहार, उपकरण वगैरहको ग्रहण न करना तीसरा स्थितिकल्प है। ५४९. प्र०-राजपिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-राजा अथवा राजाके समान ऐश्वर्यशाली व्यक्तिके आहार वगैरहको ग्रहण न करना चौथा स्थितिकल्प है। ५५०. प्र०-कृतिकर्म स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-पूज्य गुरुजनोंकी विनय और सेवा करना पाँचवाँ स्थितिकल्प है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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