Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ अभिष्ट प्रयोजन संसार के सभी प्राणी च कि दुःख से डरते हैं और मुख को अभिलाप करते है, इसलिये इस छहढाला ग्रन्थ द्वार 'उन्हें उक्त प्रयोजन सिद्ध करने के लिये भात्मस्वरुप की शिक्षा दी गई है। हमें यह विचार करना चाहिए कि वास्तविक सुख क्या है ? और वास्तविक दुःख क्या है। इन्द्रिय विषयों से जी प्रागी को सुख प्राप्त होता है वह पर द्रव्यों की अपेक्षा रखने से पराधीन, विनश्वर भोगकांक्षा आदि के दुर्ध्यान से पाप का बन्धक तथा अतृप्ति कारण अथवा विषय है। जो अन्य वस्तुओं की अपेक्षा न रखकर आरमोपेक्षित सम्यकदर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग है उन्हें समझाना चाहिये उससे विपरीत मिथ्यादीन, मिथ्याज्ञान, मिथ्यावारित्र, मोक्ष मार्ग न होकर संसार का कारण है। छहदाला नथ एक अध्यात्म और नीति प्रधान मंथ है । यह सामान्य और विशेष बुद्धि एवं रुचिवालों को एकसा आकर्षित करने वाला है। सरल शैली में साधु एवं गृहस्थ स्त्री पुरुषों का समान रूप से हितकारी होने की क्षमता रखता है। उसमें जटिलता नहीं है। यह छहढाला ग्रन्थ अनेक बार प्रकाशित हो चुका है किन्तु इसमें बहुत विस्तार से विवेचन किया है । छहाला के छह छन्दों द्वारा निगोद से लेकर मोक्ष तक का वर्णन किया है। पहली डाल में निगोद एवं मारो गतियों का वर्णन है। दुसरी ढाल में मिथ्यादर्शम, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का वर्णन, तीसरी हाल में निदचय व्यवहार सम्यक् दर्शन का वर्णन, चौथी हाल में सम्यक्जान एवं श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन, पांचबो ढाल में बारह भावनाओं का वर्णन छठी ढाल में मुनियों का तेरह प्रकार के चारित्र का स्वरूप निश्चय चारित्र का अन्त में वर्णन किया है। इसी तरह से यह भ्रन्थ छोटा समयसार यानी जैनधर्म की गीता है। उसी में चारों अनुयोगों का समावेश किया गया है। पहली हाल में प्रथमानयोग, दूसरी ढाल तत्वों का विवेचन में करणानु योग, चौथी-पाच-बी हाल में चरणानुयोग गर्व छठी डाल के अन्य में द्रव्यानुयोग इस तरह चारों अनुयोगों का वर्णन है। आनार्य रत्न थी १०. सुमतिसागर जी महाराज जैन धर्म के माननीय आचार्य है सभ. भावकों के मोक्षमार्गी एवं हितोपदेशी आत्म साधना के मार्ग दर्शन हेतु थावकों से प्रेरणा एवं उपदेशात्मक होकर यह ग्रन्थ दौलतराम जी कृत मूल प्रति का विस्तृत विवेचन किया गया है। सभी साधर्मी भाई अत्यन्त उपयोगात्मक समझ कर हर रोज पाठ कर समझ कर धर्म लाभ लेवें चन्थ छपने में प्रेस की किसी प्रकार को अशद्धि रह गई हो तो विवानगण सुधार कर पढ़ें। आचार्यरत्न श्री १०८ सुमति सागर जी महाराज की परम शिष्या १८ जनवरी, १९९० "पणनि" अयिका श्री १०५ ज्ञानमती (गुजरात वाली)

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 170