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सुभाषित नीति
बुधजन सतसई जो सपूत धनवान जो, धनजुत हो विद्वान । सब बांधव धनवान के, सरव मीत धनवान ।।१६६।। नहीं मान कुलरूप को, जगत मान धनवान । लखि बँडाल के विपुल धन, लोक करें सनमान ।।१६७।। संपति के सब ही हितू, विपदा में सब दूर । सूखो सर पंखी तजें, सेवें जलतें पूर ।।१६८।। तजें नारि सुत बंधु जन, दारिद आये साथि। फिरि आमदलखि आयके, मिलि हैं बांथाबांथि ।।१६९।। संपति साथ घटे बढ़े, सूरत बुधि बल धीर।। ग्रीषम सर शोभा हरे, सोहे वरसत नीर ।।१७०।। पटभूषन मोहे सभा, धन दे मोहे नारि । खेती होय दरिद्रतें ?, सज्जन मो मनुहार ।।१७१।। धर्महानि संक्लेश अति, शत्रुविनयकरि होय । ऐसा धन नहिं लीजिये, भूखे रहिये सोय ।।१७२।। धीर शिथिल उदमी चपल, मूरख सहित गुमान । दोष धनद के गुन कहे, निलज सरलचितवान ।।१७३।। काम छोड़ि सौ जीमजे, न्हाजे छोड़ि हजार । लाख छोड़िके दान करि, जपजे वारंवार ।।१७४।। गुरु राजा नट भट वनिक, कुटनी गनिका थान । इनतें माया मति करो, ये माया की खान ।।१७५।। खोटी संगति मति करो, पकरो गुरु का हाथ ।
करो निरन्तर दान पुनि, लखो अथिर सब साथ ।।१७६ ।। १. आलिंगन करके,
२. वस्त्राभूषण,
३. धनवान के ४. देखो,
५.अनित्य
नृप सेवातें नष्ट दुज', नारि नष्ट विन शील । गनिका नष्ट संतोषतें, भूप नष्ट चित ढील ।।१७७।। नाहीं तपसी मूढ़ मन, नहीं सूर कृतघाव । नहीं सती तिय मद्यपा', पुनि जो गान सुभाव ।।१७८।। सुत को जनम विवाहफल, अतिथिदान फल गेह। जन्म सुफल गुरुतें पठन, तजिवो राग सनेह ।।१७९।। जहाँ तहाँ तिय व्याहिये, जहाँ तहाँ सुत होय । एकमात सुत भ्रात बहु, मिले न दुरलभ सोय ।।१८०।। निज भाई निरगुन भलो, पर गुनजुत किहि काम ।
आंगन तरु निरफल जदपि, छाया राखे धाम ।।१८१।। निशिमें दीपक चंद्रमा, दिनमें दीपक सूर । सर्व लोक दीपक धरम, कुल दीपक सुत सूर ।।१८२।। सीख दई सरधे नहीं, करे रैन दिन शोर । पूत नहीं वह भूत है, महापापफल घोर ।।१८३।। शुष्क एक तरु सघनवन, जुडतहिं देत जराय । त्यों हि पुत्र पवित्र कुल, कुबुधि कलंक लगाय ।।१८४।। तृष्णा तुहि प्रनमति करूँ, गौरव देत निवार । प्रभु आय बावन भये, जाचक बलिके द्वार ।।१८५।। मिष्ट वचन धन दानतें, सुखी होत है लोक।
सम्यग्ज्ञान प्रमान सुनि, रीझत पंडित लोक ।।१८६।। १. ब्राह्मण (गुरु), २. शराब पीनेवाली, ३. घर का, ४. एक माँ के पेट से उत्पन्न हुये भाई,
५.झगड़ा, ६. जुड़ते ही,
७. विष्णुकुमार मुनिराज, ८. वामन-ठिगने