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बुधजन सतसई
सुभाषित नीति
परघरवास विदेश पथ, मूरख मीत मिलाप। जोबनमाहिं दरिद्रता, क्यों न हो संताप ।।२६५।। धाम पराया वस्त्र पर, पर सय्या पर नारि । परघर बसिवो अधम ये, त्यागे विबुध विचारि ।।२६६।। हुन्नर हाथ अनालसी, पढ़िबो करिबो मीत । शील पंच निधि ये अक्षय, राखे राहे नचीत' ।।२६७।। कष्ट समय रनके समय, दुर्भिक्ष अर भय घोर । दुरजनकृत उपसर्ग में, बचे विबुध कर जोर ।।२६८।। धरम लहे नहिं दुष्टचित, लोभी जस किम पाय । भागहीन को लाभ नहिं, नहिं औषधि गत आय ।।२६९।। दुष्ट मिलत ही साधुजन, नहीं दुष्ट है जाय । चंदन तरु को सर्प लगि, विष नहिं देत बनाय ।।२७०।। शोक हरत है बुद्धि को, शोक हरत है धीर । शोक हरत है धर्म को, शोक न कीजै वीर ।।२७१।। अश्व सुप्त गज मस्त ढिग, नृप भीतर रनवास । प्रथम ब्यायली गाय ढिग, गये प्रान का नास ।।२७२।। भूपति व्यसनी पाहुना, जाचक जड़ जमराज। ये परदुख जोवे नहीं, कीयो चाहे काज ।।२७३।। मनुष्य जनम ले ना किया, धर्म न अर्थ न काम । सो कच अजके कंठ में, उपजे गये निकाम ।।२७४।।
सरता नहिं करता रहो, अर्थ धर्म अर काम । नित तड़का द्वै घटि रह्या, चितवो आतमराम ।।२७५।। को स्वामी मम मित्र को, कहा देश में रीत । खरच कितो' आमद किती, सदा चिंतवो मीत ।।२७६।। वमन करेते कफ मिटे, मरदन मेटे वात । स्नान कियेते पित्त मिटे, लंघन ते जुर जात ।।२७७।। कोढ मांस घृत जुरविषे, सूल द्विदल द्यो टार । दृग-रोगी मैथुन तजो, नवो धान अतिसार ।।२७८।। अनदाता त्राता बिपत, हितदाता गुरुज्ञान । आप पिता पुनि धायपति, पंच पिता पहिचान ।।२७९।। गुरुरानी नृप की तिया, बहुरि मित्र की जोय । पत्नी-मा निजमातजुत, मात पांच विधि होय ।।२८०।। घसन छेद ताड़न तपन, सुवरन की पहिचान । दयाशील श्रुत तप गुननि, जान्या जात सुजान ।।२८१।। जाप होम पूजन क्रिया, वेद तत्त्वश्रद्धान। करन करावनमें निपुन, द्विज-पुरोहित गुनवान ।।२८२।। भली बुरी चितमें बसत, निरखत ले उर धार। सोम वदन वक्ता चतुर, दूत स्वामि हितकार ।।२८३।।
१.कला-कौशल्य, २. निश्चिन्त-बेफिक्र, ४. गतायु-जिसकी आयु बाकी न रही हो उसे, ६. ब्याई हुई,
७. देखते नहीं हैं,
३. अकाल, ५. सोता, ८. बकरी के गले के स्तन
१. सबेरे-दो घड़ी रात रहने पर, ४. कोढ़ रोग में माँस खाना, ६. नेत्ररोगी, ८. गुरु की स्त्री,
२. कितना, ३. मालिश, ५. शूल रोग में दो दालोंवाला अन्न खाना, ७. अतीसार रोग में-दस्तों की बीमारी में नया अन्न ९. स्त्री, १०. सास