Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ समता और ममता बुधजन सतसई तजे देहसों नेह अर, माने खोटा संग। नहिं पोषे सोषत रहे, तब तू होय निसंग ।।५२९।। तन तो कारागार है, सुत परिकर रखवार । यों जाने भाने न दुख, माने हितू गँवार ।।५३०।। या दीरघ संसार में, मुवो अनंती बार। एक बार ज्ञानी मरे, मरे न दूजी बार ।।५३१।। देह तजे मरता न तू, तो काहे की हान । जो मूए तू मरत है, तो ये जान कल्यान ।।५३२।। जीरन तजि नूतन गहे, परगट रीति जहान । तैसे तन गहना तजन, बुधजन सुखी न हान ।।५३३।। लेत सुखी देता दुखी, यह करज की रीत । लेत नहीं सो दे कहा, सुख दुख विना नचीत ।।५३४।। स्वारथ परमारथ विना, मूरख करत बिगार। कहा कमाई करत है, गुड़ी उड़ावनहार ।।५३५।। सहज मिली लखि नागहे, करे विपत के काम। चौपड़ रचि खेलें लड़े, लेत नहीं मुख राम ।।५३६।। जगमें होरी हो रही, छार उड़त सब ओर । बाह्य गये बचवो नहीं, बचवो अपनी ठोर ।।५३७।। जगजन की विपरीत गति, हरषत होत अकाज । होली में धन दे नचे, बनि भडुवा तजि लाज ।।५३८।। १. परिग्रह, २. जेलखाना, ३. ग्रहण करना, ४. पतंग उड़ानेवाला, ५. लक्ष्मी , ६. धूल मोहमाते सब ही भये, बोले बोल कुबोल । मिलवो बसिवो एक घर, बचवो रहो अबोल ।।५३९।। जगजन कारज करत सब, छलबल झूठ लगाय । इसा काज कोविद करे, जामें धरम न जाय ।।५४०।। आसी सो जासी सही, टूटे जुर गई प्रीति । देखी सुनी न सासती, अथिर अनादी रीति ।।५४१।। सब परजायनिको सदा, लागि रह्यो संस्कार । विना सिखाये करत यों, मैथुन हार निहार' ।।५४२।। समता और ममता सुने निपुन ममता विषै, कारन और हजार । विना सिखाये गुरुन के, होत न समताधार ।।५४३।। आकुलता ममता तहाँ, ममता दुखकी नींव । समता आकुलता हरे, तातें सुख की सींव ।।५४४।। समता भवदधिसोषनी, ज्ञानामृत की धार । भवाताप को हरत है, अद्भुत सुखदातार ।।५४५।। समता ते चिंता मिटे, भेटे आतमराम । ममता ते विकलप उठे, हेरे सारा ठाम ।।५४६।। ममता को परिकर घनो, क्रोध कपट मद काम । त्याजे समता एकली, बैठी अपने धाम ।।५४७।। ममता काठ अनेक तें, चिंता अगनि लगाय। जरे अनंताकाल की, समता नीर बुझाय ।।५४८।। १.मोह में मतवाले, २. ज्ञानी, ३. आया है सो जायेगा, ४. आहार-भोजन, ५. पाखाना, ६. परिवार

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