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बुधजन सतसई
जावो ये भावो रहो, नाहीं तन धन चाय । मैं तो आतमराम के मगन रहूँ गुन गाय ।। ५०९ ।। जो कुबुद्धितें बन गये, ते ही लागे लार । नई कुबुधकर क्यों फयूँ, करता बनिर अबार ।।५१० ।। चींटी मीठा ज्यों लगे, परिकर के चहुँ ओर । तू या दुःख को सुख गिने, याही तुझमें भोर ।। ५११ । । अपनी अपनी आयु ज्यों, रह हैं तेरे साथ । तेरे राखे ना रहे, जो गहि राखे हाथ । । ५१२ ।। जैसे पिछले मर गये, तैसे तेरा काल । काके कहे नचिंत है, करता क्यों न संभाल । । ५१३ ।। आयु कटत है रात-दिन, ज्यों करोत तें काठ । हित अपना जलदी करो, पड़ा रहेगा ठाठ ।।५१४ । । संपति बिजुरी सारिसी, जोबन बादर रंग । कोविद कैसे राच है, आयु होत नित भंग ।। ५१५ । । परी रहेगी संपदा, धरी रहेगी काय । छल बलकरि हु न बचे, काल झपट ले जाय ।। ५१६ ।। बनती देखि बनाय ले, पुनि मत राख उधार । बहते वारि पखार कर, फेरि न लाभे वारि ।। ५१७ ।। विसन भोग भोगत रहे, किया न पुन्य उपाय । गांठ खाय रीते चले, हटवारे में आय ।।५१८ ।।
१. बनकर के.
४. पंडित विवेकी,
७. मिलेगा,
२. भोलापन,
५. पानी,
८. समय,
३. बादल,
६. घोले,
९. बाजार
विराग भावना
खावो खरचो दान द्यो, विलसो मन हरषाय । संपति नदी प्रवाह ज्यों, राखी नाहिं रहाय । । ५१९ ।। निशि सूते संपति सहित, प्रात हो गये रंक । सदा रहे नहिं एकसी, निभे न काकी बंक' ।। ५२० ।।
तुछ स्यानप' अति गाफिली, खोई आयु असार । अब तो गाफिल मत रहो, नेड़ो आत करार ।।५२१ ।। राचो विरचो कौनसो, देखी वस्तु समस्त । प्रगट दिखाई देत है, भानु उदय अर अस्त ।। ५२२ ।। देहधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात ।
तन तो तजि गये राम से, रावन की क्या बात ।। ५२३ ।। आया सो नाही रह्या, दशरथ लछमन राम ।
तू कैसे रह जायगा, झूठ पाप का धाम ।। ५२४।। करना क्या करता कहा, धरता नाहिं विचार । पूंजी खोई गांठ की, उलटी खाई मार ।। ५२५ ।। धंधा करता फिरत है, करत न अपना काज । घर की झुंपरी जरत है, पर घर करत इलाज ।। ५२६ ।। किते दिवस बीते तुम्हें, करते क्यों न विचार । काल गहेगा आय कर, सुन है कौन पुकार ।।५२७ ।। जो जीये तो क्या किया, मूए क्या दिया खोय । लारे लगी अनादि की, देह तजे नहिं तोय ।। ५२८ ।।
२. चतुराई,
३. नजदीक,
१. अभिमान, ४. जीव