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गुरु प्रशंसा
बुधजन सतसई गुरनुकूल चाले नहीं, चाले स्वतः स्वभाव । सो नहिं पावे थानको, भव वन में भरमाय ।।६४७।। कलेश मिटे आनंद बड़े, लाभे सुगम उपाय । गुरु को पूछिर चालता, सहज थान मिल जाय ।।६४८।। तन मन धन सुख संपदा, गुरु पे डारूं वार । भवसमुद्रतें डूबता, गुरु ही काढ़नहार ।।६४९।। स्वारथ के जगजन हितू, विन स्वारथ तज देत । नीच ऊँच निरखे न गुरु, जीवजातते हेत ।।६५०।। ब्योंत परे हित करत हैं, तात मात सुत भ्रात । सदा सर्वदा हित करे, गुरु के मुख की बात ।।६५१।। गुरु समान संसार में, मात पिता सुत नाहिं। गुरु तो तारे सर्वथा, ए बोरे भवमाहिं ।।६५२।। गुरु उपदेश लहे विना, आप कुशल है जात । ते अजान क्यों टारि हैं, करी चतुर की घात' ।।६५३।। जहाँ तहाँ मिलि जात हैं, संपति तिय सुत भ्रात । बड़े भागते अति कठिन, सुगुरु कहीं मिल जात ।।६५४।। पुस्तक बांची इकगुनी, गुरुमुख गुनी हजार। तातें बड़े तलाशतें, सुनिजे वचन उचार ।।६५५।। गुरु वानी अमृत झरत, पी लीनी छिनमाहिं। अमर भया ततखिन सुतो, फिर दुख पावे नाहिं ।।६५६।। भली भई नरगति मिली, सुने सुगुरु के वैन । दाह मिट्या उरका अबे, पाय लई चित चैन ।।६५७।।
क्रोध वचन गुरु का जदपि, तदपि सुखकर' धाम । जैसे भानु दुपहर का, शीतलता परिणाम ।।६५८।। परमारथ का गुरु हितू, स्वारथ का संसार । सब मिलि मोह बढ़ात हैं, सुत तिय किंकर यार ।।६५९।। तीरथ तीरथ क्यों फिरे, तीरथ तुम घटमाहिं। जे थिर हुए सो तिर गये, अथिर तिरत हैं नाहिं ।।६६०।। कौन देत है मनुष भव, कौन देत है राज । याके पहचाने विना, झूठा करत इलाज ।।६६१।। प्रात धर्म पुनि अर्थरुचि, काम करे निशि सेव । रुचे निरंतर मोक्ष मन, सो मानुष नहिं देव ।।६६२।। संतोषामृत पान करि, जे हैं समतावान । तिनके सुख सम लुब्ध को, अनंत भाग नहिं जान ।।६६३।। लोभ मूल है पाप को, भोग मूल है व्याधि । हेत जु मूल क्लेश को, तिहूं त्यागि सुख साधि ।।६६४।। हिंसाते है पातकी, पातकतें नरक आय । नरक निकसि है पातकी, संतति कठिन मिटाय ।।६६५।। हिंसक को बैरी जगत, कोई न करे सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोइ लेत बचाय ।।६६६।। अपने भाव बिगाड़ते, निहचे लागत पाप । पर अकाज तो हो न हो, होत कलंकी आप ।।६६७।। जितो पाप चित चाहसो, जीव सताए होय ।
आरंभ उद्यम को करत, ताते थोरो जोय ।।६६८।। १. सुख करनेवाला,
२.सेवक,
३. लोभी, ४. मोह,
५. नरक आयु
१. अपनेआप,
२. पूछकर, ३.सभी जीवों से,
४. डुबोते, ५. चतुर पुरुषों की की हुई चोट-आक्षेप को कैसे टालेंगे