Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ कवि प्रशस्ति बुधजन सतसई कीने पाप पहार से, कोटि जनम में भूर। अपना अनुभव वज्रसम, कर डाले चकचूर / / 692 / / हितकरनी धरनी सुजस, भयहरनी सुखकार / तरनी भवदधिकी दया, वरनी षटमत' सार / / 693 / / दया करत सो तात सम, गरु नप भ्रात समान। दयारहित जे हिंसकी, हरि अहि अगनि प्रमान / / 694 / / पंथ सनातन चालजे, कहजे हितमित वैन / अपना इष्ट न छोड़जे सहजे चैन अचैन / / 695 / / कवि प्रशस्ति मधि नायक सिरपंच ज्यों, जैपुर मधि ढूंढार / नृप जयसिंह सुरिंद तहाँ, प्रजाको हितकार / / 696 / / कीने बुधजन सातसे, सुगम सुभाषित हेर। सुनत पढ़त समझे सरव 2, हरे कुबुधिका फेर / / 697 / / संवत ठारासे असी, एक वरसतें घाट / जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, हवो सतसई पाठ / / 698 / / पुन्य हरत रिपुकष्टको, पुन्य हरत रुज व्याधि / पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साधि / / 699 / / भूख सहो दारिद सहो, सहो लोक अपकार। निंदकाम तुम मति करो, यह ग्रंथ को सार / / 700 / / ग्राम नगर गढ़ देश में, राज प्रजा के गेह।। पुन्य धरम होवो करे, मंगल रहो अछेह / / 701 / / ना काहूकी प्रेरना, ना काहूकी आस / अपनी मति तीखी करन, वरन्यो वरनविलास / / 702 / / 1. पहाड़, 2. बहुत, 6. चलिये, 7. कहिये, 11. दुःख 12. सभी, 15. अपमान-तिरस्कार, 3. छहों मतों में, 4. सिंह, 5. साँप, 8. छोड़िये ९.सहिये, १०.सुख, 13. संवत् 1879, 14. जेठ वदी अष्टमी रविवार, 16. तीक्ष्ण

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