Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ बुधजन सतसई धिक कुशील कुलवान को, जासों डरत जहान । बतलावत लागे बटा', नाहिं रहत कुलकान ।।४९७।। ना सेई नाहीं छुई, रावन पाई घात । चली जात निंदा अजों, जगमें भई विख्यात ।।४९८।। प्रथम सुभग सोहित सुगम, मध्य वृथा रस स्वाद । अंत विरस दुख नरकसा, विसन-विवाद अबाद ।।४९९।। विसन लगा जा पुरुषके, सो तो सदा खराब । जैसे हीरा एबजुत', नाहीं पावे आब ।।५००।। ॥ इति उपदेशाधिकार ।। १. इजत में बट्टा लगाता है, ३. दोषवाला २. कुल की लाज, विराग भावना (दोहा) केश पलटि पलट्या वपू', ना पलटी मन बाँक। बुझे न जरती झूपरी, ते जर चुके निसांक ।।५०१।। नित्य आयु तेरी झरे, धन पैले मिलि खाँय । तू तो रीता ही रह्या, हाथ झुलाता जाय ।।५०२।। अरे जीव भव वन विषै, तेरा कौन सहाय । काल सिंह पकरे तुझे, तब को लेत बचाय ।।५०३।। को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । आके मिले सराय में, बिछुरेंगे निरधार' ।।५०४।। तात मात सुत भ्रात सब, चले सुचलना मोहि। चौसठ वरष जाते रहे, कैसे भूले तोहि ।।५०५।। बहुत गई थोड़ी रही, उरमें धरो विचार । अब तो भूले डूबना, निपट नजीक किनार ।।५०६।। झूठा सुत झूठी तिया, है ठगसा परिवार । खोसि लेत है ज्ञानधन, मीठे बोल उचार ।।५०७।। आसी सो जासी सही, रहसी जेते आय। अपनी गो' आया गया, मेरा कौन बसाय ।।५०८।। जिनबानी के सुनैसौं मिथ्यात मिटै जिनबानीके सुनैसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै।।जिनबानी. ।।टेक।। जैसैं प्रात होत रविऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फटै।।१।जिनबानी.।। अनादिकालकी भूलि मिटावै, अपनी निधि घटघटमैं उघटे। त्याग विभाव सुभावसुधारे, अनुभव करतांकरम कटै।।२।।जिनबानी. ।। और काम तजि सेवो याकौं, या बिन नाहिं अज्ञान घटै। बुधजन याभव परभव मांहीं, बाकी हुंडी तुरत पटे||३|जिनबानी. ।। - कविवर पण्डित बुधजनजी ३. निश्चय से, १. शरीर, ४. आयु-उम्र, २. दूसरे लोग, ५. बारी

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