Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ (४२) बुधजन सतसई मनकी गति को कहि सके, सब जाने भगवान । जिन याको बसि कर लियो, ते पहुँचे शिवथान ।। ३९६ ।। पर का मन मैला निरखि, मन बन जाता सेर । जब मन मांगे आनते, तब मनका है सेर ।। ३९७ ।। जब मन लागे सोचमें, तब तन देत सुखात । जब मन निरभै सुख गहे, तब फूले सब गातः ।। ३९८ ।। गति गति में मरते फिरे, मनमें गया न फेर । फेर मिटेते मन तना, मरे न दूजी बेर ।। ३९९ ।। जिनका मन आतुर भया, ते भूपति नहिं रंक । जिनका मन संतोष में, ते नर इंद्र निःशंक ॥। ४०० ।। जंत्र मंत्र औषधि हरे, तनकी व्याधि अनेक । मन की बाधा सब हरे, गुरु का दिया विवेक ।।४०१ ।। वही ध्यान वही जाप व्रत, वही ज्ञान सरधान । जिनमन अपनावसि किया, तिन सब किया विधान || ४०२ || विन सीखे बचवो नहीं, सीखो राख विचार । झूठ कपटकी ढालकर, ना कीजे ? तरवार ।।४०३।। जीनेते मरना भला, अपजस सुन्या न जात । कहने ते सुनना भला, बिगड़ जाय है बात ।।४०४।। अपने मन आछी लगे, निंदे लोक सयान । ऐसी परत न कीजिये, तजिये लोभ अज्ञान ।। ४०५ ।। २. शरीर, १. क्षीण कर देता है, ३. पक्ष उपदेशाधिकार थोड़ा ही लेना भला, बुरा न लेना भोत' । अपजस सुन जीना बुरा, तातें आछी मौत ।। ४०६ ।। स्वामिकाज निज काम है, सधे लोक परलोक । इसा काज बुधजन करो, जामें एते थोक ।।४०७ ।। कहा होत व्याकुल भए, व्याकुल विकल कहात । कोटि जतनतें ना मिटे, जो होनी जा स्यात' ।। ४०८ ।। जामें नीति बनी रहे, बन आवे प्रभु नाम । सो तो दारिद ही भला, या विन सबे निकाम ।। ४०९ ।। जो निंदाते ना डरे, खा चुगली धन लेत । वातें जग डरता इसा, जैसे लागा प्रेत । । ४१० ।। कुल मरजादाका चलन, कहना हितमित वैन । छोड़े नाहीं सतपुरुष, भोगे चैन अचैन । ।४११।। दारिद रहे न सासता, संपति रहे न कोय । खोटा काज न कीजिये, करो उचित है सोय ।।४१२ ।। मानुष की रसना वसे, विष अर अमृत दोय । भली कहे बच जाय है, बुरी कहे दुख होय ।। ४१३ । । अनुचित हो है बसि विना, तामें रहो अबोल । बोलेतें ज्यों वारि लगि, सागर उठे कलोल । । ४१४ । । तृष्णा की क्या मिले, नाशे हित निज देह । सुखी संतोषी सासता, जग जस रहे सनेह । । ४१५ । । १. अधिक, ३. जिस समय, २. ऐसा, ४. शाश्वत निरन्तर

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