Book Title: Budhjan Satsai
Author(s): Budhjan Kavivar
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ उपदेशाधिकार उपदेशाधिकार (दोहा) ध्यावे सो पावे सही, कहत बाल गोपाल । बनिया देत कपर्दिका', नरपति करे निहाल ।।३०१।। उलझे सुलझिर सुध भये, त्यों तू उलझ्यो मान । सुलझनिको साधन करे,तो पहुँचे निजथान ।।३०२।। लखत सुनत सूंघत चखत, इंद्री त्रिपत न होय । मन रोके इंद्री रुके, ब्रह्म प्राप्ति होय ।।३०३।। तृष्णा मिटे संतोषते, सेयें अति बढ़ि जाय। तृन' डारे आग न बुझे, तृनारहित बुझ जाय ।।३०४।। चाहि करे सो ना मिले, चाहि समान न पाप । चाहि रखे चाकरि करे, चाहि विना प्रभु आप ।।३०५।। पाप जान पर-पीडबो, पुन्य जान उपकार । पाप बुरो पुण्य है भलो, कीजे राखि विचार ।।३०६।। पाप अल्प पुण्य द्वै अधिक, ऐसे आरंभ ठानि । ज्यों विचार विणजे सुघर, लाभ बहुत तुछ हानि ।।३०७।। विपति परें सोच न करो, कीजे जतन विचार । सोच कियेते होत है, तन धन धर्म बिगार ।।३०८।। १. कौड़ी, २. सुलझ करके, ४. ज्ञान, ५. घास, ६. इच्छा , ७. व्यापार करे, सोच किये चक्रित रहे, जात पराक्रम भूल । प्रबल होत वैरी निरखि, करि डारे निरमूल ।।३०९।। देशकाल वय देखिके, करि है वैद्य इलाज। त्यों गेही घर बसि करे, धर्म कर्म का काज ।।३१०।। प्रथम धरम पीछे अरथ, बहुरि कामको सेय। अन्त मोक्ष साधे सुधी, सो अविचल सुख लेय ।।३११।। धर्म मोक्ष को भूलिके, कारज करि है कोय । सो परभव विपदा लहे, या भव निंदक' होय ।।३१२।। शक्ति समालिर कीजिये, दान धर्म कुल काज। यशपावे मतलब सधे, सुखिया रहे मिजाज ।।३१३।। विना विचारे शक्तिके, करे न कारज होय । थाह विना ज्यों नदिनि में, परे सु बूड़े सोय ।।३१४।। अलभ मिल्यो न लीजिये, लिये होत बेहाल । वनमें चावल को चुगे, बँधे परेवा' जाल ।।३१५।। जैसी संगति कीजिये, तैसा है परिनाम । तीर गहै ताके तुरत, माला ले नाम ।।३१६।। जनम अनेक कुसंग वस, लीने होय खराब । अब सतसंगति के किये, लै शिवपथ का लाभ ।।३१७।। १. भ्रमित, २. उम्र, ३. गृहस्थी, ४. धन, ५. निंद्य-बदनाम, ६. संभाल कर अर्थात् जितनी शक्ति हो उतना, ७. डूबे, ८. बिना मेहनत के, ९. कबूतर, १०. एक शिकारी जंगल में चावल फैलाकर उस पर जाल बिछाकर छुप गया, चावलों को देखकर कबूतर चुगने के लिए आ बैठे और जाल में फंस गये। यह कथा हितोपदेश में है। ११. ताकता है, निशाना साधता है।

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