Book Title: Buddhiprabha 1963 10 SrNo 48
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 36
________________ ३४] बुद्धिप्रभा [ता. १०-१०-१९६३ नहीं चाहिये। यह जमाना ऐमा उपयोगी कार्य आज करनेके हैं वे है कि जो इन्मान इतर धर्मा और करना चाहिये। देशके कर्मयोगीयोंकी स्पर्धामें पीछे रह रमेश नैमित्तिक कार्य करना जायगा वा मर जायेंगे उन्होंको चाहिये। वर्तमान संयोगोंको देखकर अपनी संतानोंको गुलाम बनानेवाले देश राज्य और प्रजाका विकास हो समझना। और वे तीर्थंकरोंकी आज्ञाको ऐसा काम करना चाहिये। अभिमान भ्रष्ट करनेवाले है ऐसा समझ लेना। और ममताका त्याग करके डर, खेद जिस कोम. धर्म और देशके लोग और द्वेष आदिको दूर करके, निष्काम जन्ममिको सेवाको त्याग करता है, बनकर धर्मको रक्षा हो और उनका देशसेवाको भी त्याग करना समझता उद्धार हो जाय ऐसे कार्य करना है, राज्यसेवा भी करना नहीं चाहता, चाहिये। ज्ञातिभोजन और दुयसनों में और जिन्हें अपनी मा-भोम और जो लक्ष्मीका दुरुपयोग होता है उन धर्मका अभिमान और गौरव नहीं सबका त्याग करना चाहिये। बाल है वे इस दुनियामें नामर्द, निकम्मे, लग्न, वृद्धलन, वेश्यासंग और जुआका भीरू और स्वार्थी हैं। अगर . ऐसे भी त्याग करना चाहिये। अभी तो लोग जो त्यागी भी बनते हैं तो वे हर इन्सानको विद्या, ज्ञान, क्षात्रवल, त्यागमार्ग-संयममार्गकी जो महत्ता है. वैश्यवल और शूदबलसे मुक्त रहना उनको भी घटा देते है। और आत्माके चाहिये । गुणोंको यथार्थ विकास नहीं कर अब जमाना बदल गया है । पानेसे वे मुक्त भी नहीं हो सकते। नैनियों को सब प्रकारकी शक्तियों को सञ्चे त्यागीयोंके लक्षणों को लोगोंके प्राप्त करनेके लिए, आपद्धर्म के कार्य आचारमें लानेके लिये गुरुकुल, विद्या- करनेका ममय हो गया है। हमारे पीठ और विद्यालयोंकी स्थापना वह कहनेका मतलव जैन कोम अगर करनेको अत्यन्त • अावश्यकता है। नहीं समझेगी तो अन्य धर्मियों को सभी युक्तियों और प्रयासोंसे जैन- बलसे. जैन कोमकी अनेक संतानें धर्मको विश्व में प्रसार कर सके ऐसे अन्य धर्म बन जायेगी और जैन साधुओंको तैयार करने के लिए अत्यन्त समाजमें बहुत कर्मयोगी भी नहीं आत्मभोग देना जरूरी है। मिलेंगे। गृहस्थ और स्थागी कर्मयोगीयोंको देश, राज्य धर्म, व्यापार आदि अपने अधिकारके मुताबिक, जो सर्व विषयों के कर्म करनेके लिये कर्म --- दीपोत्सवी अंक -

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