Book Title: Buddhiprabha 1963 10 SrNo 48
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 40
________________ ३८] बुद्धिप्रभा [ता. १०-१०-१९६३ किस शेगकी सवा ? ही था । मामने वह गगनचुम्बी महल -दवा, जिससे पका फल सड़ और उसके पार ...... ! न सके पौर खिलाफूड मुसा न महलके पास पहुंचकर वह रुका। सके |--और राही आगे बढ़ गया। सामने से एक वयःसंधि बाला, रूपकी दामनको अपने अंकों में समेटे सामने मनुष्य बढ़ता गया। राम्ते में उसे खड़ी थी—'कहाँ जाते हो ?-चालाने एक उजड़ा और कटा खेल दिखायी। दिया। खेतकी मेंड़पर एक किमान मधुर मुस्कानके साथ पूछा। बैठा था। मनुष्य वहाँ थोड़ी देरके -अपने लक्ष्यकी ओर। दवाके लिये रुक गया। किमानने अनजाने लिये अपने प्रभुसे कहने । आदमोको अपने वीरान खेतकी ओर . -मत जाओ तुम आगे। मैं घूमते देखा तो वह चुप न रह तम्हारी दवा यहीं दे दूंमी । सका-क्या देखते हो भाई ? कहाँ बोले ! तुम दवा नहीं दे सकती जाओगे ? और वह सिर्फ मेरी नहीं, मनुष्य---जहाँ दवा मिल जाय। मात्रकी दवा है। --कैसी दवा ? -कैसी दवा ?-बालाने प्रश्न -दवा........., वह, जिससे किया। बसा घर उजड़ न सक आर लह -दवा, वह निससे बाँकी लहाता खेत बीरान न हो सके। चितवन आदमीको भस्म नहीं कर सके --मनुष्य बोला और वह बिना और अंकोंके कुमकुम उसे पथ च्युत किसानकी ओर देखे हो आगे न बना दे। बढ़ गया। बाला चकित हो गयी-- मेरे भोले मनुष्य बढ़ता गया और अब वह पथिक ! यहीं रुका। तुम्हारे ये रूखेबहुत दूर निकल गया था । पाँवोंके सूखे अधर, रुधिरसे मने पर। छालोंसे रुधिर-धार बह रही थी और बाला आगे बढ़कर उसे पकड़ना होठों पपड़ोपर कालिमाका भावरण हो चाहती थी कि वह व्यक्ति पीछे चढ़ गया था। परन्तु उसके मुखपर हट गया--'बाले ! छोड़ दो मेरा प्रसन्नताको रेखा स्पष्ट खायो दे रहो पथ । प्रबाहमें फापट डालो। थी। अब वह अपने लक्ष्यके करीष मा काँटा न बनो। यह तुम्हारी ----- दीपोत्सवी अंक --------

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